त्रिसप्तत्यधिशततम (173) अध्याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिसप्तत्यधिशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन बोले- राजन्! तत्पश्चात् लौटते समय मार्ग में मैंने एक दूसरा दिव्य विशाल नगर देखा, जो अग्नि और सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपने निवासियों की इच्छा के अनुसार सर्वत्र आ-जा सकता था। विचित्र रत्नमय वृक्ष और मधुर स्वर में बोलने वाले पक्षी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। पौलोम और कालकंज नामक दानव सदा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ निवास करते थे। उस नगर में ऊँचे-ऊँचे गोपुरों सहित सुन्दर अट्टालिकाएं सुशोभित थीं। उसमें चारों दिशाओं में एक-एक करके चार फाटक लगे थे। शत्रुओं के लिये उस नगर में प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था। सब प्रकार के रत्नों से निर्मित वह दिव्य नगर अद्भुत दिखायी देता था। फल और फूलों से भरे हुए सर्वरत्नमय वृक्ष उस नगर को सब ओर से घेरे हुए थे तथा वह नगर दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर पक्षियों से युक्त था। सदा प्रसन्न रहने वाले बहुत-से असुर गले में सुन्दर माला धारण किये और हाथों में शूल, ऋष्टि, मूसल, धनुष तथा मुद्गर आदि अस्त्र-शस्त्र लिये सब ओर से घेरकर उस नगर की रक्षा करते थे। राजन्! दैत्यों के उस अद्भुत दिखायी देने वाले नगर को देखकर मैंने मातलि से पूछा- 'सारथे! यह कौन-सा अद्भुत नगर है?' मातलि ने कहा- 'पार्थ! दैत्यकुल की कन्या पुलोमा तथा महान् असुरवश की कन्या कालका-उन दोनों ने एक हजार दिव्य वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। तदनन्तर तपस्या पूर्ण होने पर भगवान् ब्रह्माजी ने उन दोनों को वर दिया। उन्होंने यही वर मांगा कि 'हमारे पुत्रों का दुःख दूर हो जाये'। राजेन्द्र! उन दोनों ने यह भी प्रार्थना की कि 'हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागों के लिये भी अवध्य हों। इनके रहने के लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपनी महान् प्रभा-पुंज से जगमगा रहा हो। वह नगर विमान की भाँति आकाश में विचरने वाला होना चाहिये, उसमें सब प्रकार के रत्नों का संचय रहना चाहिये, देवता, महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर तथा राक्षस कोई भी उसका विध्वंस न कर सके। वह नगर समस्त मनोवांछित गुणों से सम्पन्न, शोकशून्य तथा रोग आदि से रहित होना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! ब्रह्माजी ने कालकेयों के लिये वैसे ही नगर का निर्माण किया था। यह वही आकाशचारी दिव्य नगर है, जो सर्वत्र विचरता है। इसमें देवताओं का प्रवेश नहीं है। वीरवर! इसमें पौलोम और कालकंज नामक दानव ही निवास करते हैं। यह विशाल नगर हिरण्यपुर के नाम से विख्यात है। कालकेय तथा पौलोम नामक महान् असुर इसकी रक्षा करते हैं। राजन्! ये वे ही दानव हैं, जो सम्पूर्ण देवताओं से अवध्य रहकर उद्वेग तथा उत्कण्ठा से रहित हो यहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मनुष्य के हाथ से इनकी मृत्यु निश्चित की थी। कुन्तीकुमार! ये कालकंज और पौलोम अत्यन्त बलवान् तथा दुर्धर्ष हैं। तुम युद्ध में वज्रास्त्रों के द्वारा इनका भी शीघ्र ही संहार कर डालो।' अर्जुन बोले-राजन्! उस हिरण्यपुर को देवताओं और असुरों के लिये अवध्य जानकर मैंने मातलि से प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'आप यथाशीघ्र इस नगर में अपना रथ ले चलिये। जिससे देवराज के द्रोहियों को मैं अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट कर डालूं? जो देवताओं से द्वेष रखते हैं, उन पापियों को मैं किसी प्रकार मारे बिना नहीं छोड़ सकता'। मेरे ऐसा कहने पर मातलि ने घोड़ों से युक्त उस दिव्य रथ के द्वारा मुझे शीघ्र ही हिरण्यपुरके निकट पहुँचा दिया। मुझे देखते ही विचित्र वस्त्राभूषणों से विभूषित वे दैत्य कवच पहनकर अपने रथों पर जा बैठे और बड़े वेग से मेरे ऊपर टूट पड़े। तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए उन प्रचण्ड पराक्रमी दानवेन्द्रों ने नालीक, नाराच, भल्ल, शक्ति, ऋष्टि तथा तोमर आदि अस्त्रों द्वारा मुझे मारना आरम्भ किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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