महाभारत वन पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-19

चत्‍वारिंश (40) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् शंकर का अर्जुन को वरदान देकर अपने धाम को प्रस्थान

देवदेव महादेव जी बोले- 'अर्जुन! तुम पूर्व शरीर में ‘नर’ नामक सुप्रसिद्ध ऋषि थे। नारायण तुम्हारे सखा हैं। तुमने बदरिकाश्रम में अनेक सहस्र वर्षों तक उग्र तपस्या की है। तुम में अथवा पुरुषोत्तम भगवान विष्णु में उत्कृष्ट तेज है। तुम दोनों पुरुषरत्नों ने अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को धारण कर रखा है। प्रभो! तुमने और श्रीकृष्ण ने इन्द्र के अभिषेक के समय मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले महान धनुष को हाथ में लेकर बहुत-से दानवों का वध किया था। पुरुषप्रवर पार्थ! तुम्हारे हाथ में रहने योग्य यही वह गाण्डीव धनुष है, जिसे मैंने माया का आश्रय लेकर अपने में विलीन कर लिया था। कुरुनन्दन! और ये रहे तुम्हारे दोनों अक्षय तूणीर, जो सर्वथा तुम्हारे ही योग्य हैं। कुन्तीकुमार! तुम्हारे शरीर में जो चोट पहुँची है, वह सब दूर होकर तुम निरोग हो जाओगे। पार्थ! तुम्हारा पराक्रम यथार्थ है, इसलिये मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। पुरुषोत्तम तुम मुझसे मनोवांछित वर ग्रहण करो। मानद! मर्त्यलोक अथवा स्वर्गलोक में भी कोई पुरुष तुम्हारे समान नहीं है। शत्रुदमन! क्षत्रिय जाति में तुम्हीं सबसे श्रेष्ठ हो।'

अर्जुन बोले- 'भगवन्! वृषध्वज! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे इच्छानुसार वर देते हैं तो प्रभो! में उस भयंकर दिव्यास्त्र पाशुपत को प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसका नाम ब्रह्मशिर है। आप भगवान् रुद्र ही जिसके देवता हैं, जो भयानक पराक्रम प्रकट करने वाला तथा दारुण प्रलय काल में सम्पूर्ण जगत् का संहारक है। महादेव! कर्ण, भीष्म, कृप, द्रोणाचार्य आदि के साथ मेरा महान् युद्ध होने वाला है, उस युद्ध में मैं आपकी कृपा से उन सब पर विजय पा सकूं, इसी के लिये दिव्यास्त्र चाहता हूँ। मुझे वह अस्त्र प्रदान कीजिये, जिससे संग्राम में दानवों, राक्षसों, भूतों, पिशाचों, गन्धर्वों तथा नागों को भस्म कर सकूं। जिस अस्त्र के अभिमंत्रित करते ही सहस्रों शूल, देखने में भयंकर गदाएं और विषैले सर्पों के समान बाण प्रकट हों। उस अस्त्र को पाकर मैं भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य तथा सदा कटु भाषण करने वाले सूतपुत्र कर्ण के साथ भी लड़ सकूं। भगदेवता की आंखें नष्ट करने वाले भगवन्! आपके समक्ष यह मेरा सबसे पहला मनोरथ है, जो आप ही के कृपाप्रसाद से पूर्ण हो सकता है। आप ऐसा करें, जिससे में सर्वथा शत्रुओं को परास्त करने में समर्थ हो सकूं।'

महादेव जी ने कहा- 'पराक्रमशाली पाण्डुकुमार! मैं अपना परम प्रिय पाशुपतास्त्र तुम्हें प्रदान करता हूँ। तुम इसके धारण, प्रयोग और उपसंहार में समर्थ हो। इसे देवराज इन्द्र, यम, यक्षराज कुबेर, वरुण अथवा वायु देवता भी नहीं जानते। फिर साधारण मानव तो जान ही कैसे सकेंगे? परन्तु कुन्तीकुमार! तुम सहसा किसी पुरुष पर इसका प्रयोग न करना। यदि किसी अल्पशक्ति योद्धा पर इसका प्रयोग किया गया तो यह सम्पूर्ण जगत् का नाश कर डालेगा। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस अस्त्र द्वारा मारा न जा सके। इसका प्रयोग करने वाला पुरुष अपने मानसिक संकल्प से, दृष्टि से, वाणी से तथा धनुष बाण द्वारा भी शत्रुओं को नष्ट कर सकता है।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन तुरन्त ही पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो शिष्यभाव से भगवान् विश्वेश्वर की शरण गये और बोले- ‘भगवन्! मुझे इस पाशुपतास्त्र का उपदेश कीजिये’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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