महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-17

एकादश (11) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र का विदुर के द्वारा युधिष्ठिर से श्राद्ध के लिये धन माँगना, अर्जुन की सहमति और भीमसेन का विरोध

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने विदुर जी को युधिष्ठिर के महल में भेजा। राजा की आज्ञा से अपने धर्म से कभी विचलित न होने वाले राजा युधिष्ठिर के पास जाकर समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महातेजस्वी विदुर ने इस प्रकार कहा- "राजन! महाराज धृतराष्ट्र वनवास की दीक्षा ले चुके हैं। इसी कार्तिकी पूर्णिमा को जो कि अब निकट आ पहुँची है, वे वन की यात्रा करेंगे। कुरुकुलश्रेष्ठ! इस समय वे तुमसे कुछ धन लेना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि महात्मा भीष्म, द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान बाह्लीक और युद्ध में मारे गये अपने समस्त पुत्रों तथा अन्य सुहृदों का श्राद्ध करें। यदि तुम्हारी सम्मति हो तो वे उस नराधम सिन्धुराज जयद्रथ का भी श्राद्ध करना चाहते हैं।"

विदुर की यह बात सुनकर युधिष्ठिर तथा पांडुपुत्र अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए और उनकी सराहना करने लगे। परंतु महातेजस्वी भीमसेन के हृदय में उनके प्रति अमिट क्रोध जमा हुआ था। उन्हें दुर्योधन के अत्याचारों का स्मरण हो आया, अतः उन्होंने विदुर जी की बात नहीं स्वीकार की। भीमसेन के उस अभिप्राय को जानकर किरीटधारी अर्जुन कुछ विनीत हो उस नरश्रेष्ठ से इस प्रकार बोले- "भैया भीम! राजा धृतराष्ट्र हमारे ताऊ और वृद्ध पुरुष हैं। इस समय वे वनवास की दीक्षा ले चुके हैं और जाने के पहले वे भीष्म आदि समस्त सुहृदों का और्ध्‍वदेहिक श्राद्ध कर लेना चाहते हैं। महाबाहो! कुरुपति धृतराष्ट्र आपके द्वारा जीते गये धन को आपसे माँगकर उसे भीष्म आदि के लिये देना चाहते हैं; अतः आपको इसके लिये स्वीकृति दे देनी चाहिये। महाबाहो! सौभाग्य की बात है कि आज राजा धृतराष्ट्र हम लोगों से धन की याचना करते हैं। समय का उलटफेर तो देखिये। पहले हम लोग जिनसे याचना करते थे, आज वे ही हमसे याचना करते हैं। एक दिन जो सम्पूर्ण भूमण्डल का भरण-पोषण करने वाले नरेश थे, उनके सारे मन्त्री और सहायक शत्रुओं द्वारा मार डाले गये और आज वे वन में जाना चाहते हैं। पुरुषसिंह! अतः आप उन्हें धन देने के सिवा दूसरा कोई दृष्टिकोण न अपनावें। महाबाहो! उनकी याचना ठुकरा देने से बढ़कर हमारे लिये और कोई कलंक की बात न होगी। उन्हें धन न देने से हमें अधर्म का भी भागी होना पड़ेगा। आप अपने बड़े भाई ऐश्वर्यशाली महाराज युधिष्ठिर के बर्ताव से शिक्षा ग्रहण करें। भरतश्रेष्ठ! आप भी दूसरों को देने के ही योग्य हैं; दूसरों से लेने के योग्य नहीं।"

ऐसी बात कहते हुए अर्जुन की धर्मराज युधिष्ठिर ने भूरी-भूरी प्रशंसा की। तब भीमसेन ने कुपित होकर उनसे यह बात कही- "अर्जुन! हम लोग स्वयं ही भीष्म, राजा सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजर्षि बाह्लीक, महात्मा द्रोणाचार्य तथा अन्य सब सम्बन्धियों का श्राद्ध करेंगे। हमारी माता कुन्ती कर्ण के लिये पिण्डदान करेंगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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