महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-23

अष्टाशीति (88) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टाशीति अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन का श्रीकृष्ण के विषय में अपने विचार कहना एवं उसकी कुमंत्रणा से कुपित हो भीष्म जी का सभा से उठ जाना
  • दुर्योधन बोला- पिताजी! अपनी मर्यादा से कभी च्युत ने होने वाले श्रीकृष्ण के संबंध में विदूर जी जो कुछ कहते हैं, वह सब कुछ ठीक है। जनार्दन श्रीकृष्ण का कुंती के पुत्रों के प्रति अत्यंत अनुराग है, अत: उन्हें उनकी ओर से फोड़ा नहीं जा सकता। (1)
  • राजेन्द्र! आप जो जनार्दन को सत्कारपूर्वक बहुत-सा धन-रत्न भेंट करना चाहते हैं, वह कदापि उन्हें न दें। (2)
  • मैं इसलिए नहीं कहता कि श्रीकृष्ण उन वस्तुओं के अधिकारी नहीं है, अपितु इस दृष्टि से मना कर रहा हूँ कि वर्तमान देश-काल इस योग्य नहीं है कि उनका विशेष सत्कार किया जाये। राजन! इस समय तो श्रीकृष्ण यही समझेंगे कि यह डर के मारे मेरी पूजा कर रहे हैं। (3)
  • प्रजानाथ! जहाँ क्षत्रिय का अपमान होता हो, वहाँ समझदार क्षत्रिय को वैसा कार्य नहीं करना चाहिए। यह मेरा निश्चित विचार है। (4)
  • विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस लोक में ही नहीं, तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण परम पूजनीय पुरुष हैं, यह बात मुझे सब प्रकार से विदित है। (5)
  • प्रभो! तथापि मेरा मत है कि इस समय उन्हें कुछ नहीं देना चाहिए; क्योंकि ऐसी ही कार्यप्रणाली प्राप्त है। जब कलह आरंभ हो गया है, तब अतिथि सत्कार द्वारा प्रेम दिखाने मात्र से उसकी शांति नहीं हो सकती। (6)
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दुर्योधन की यह बात सुनकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार बोले- (7)
  • 'राजन! श्रीकृष्ण का कोई सत्कार करे या न करे, इससे वे कुपित नहीं होंगे। परंतु वे अवहेलना के योग्य कदापि नहीं हैं, अत: कोई भी उनका अपमान या अवहेलना नहीं कर सकता। (8)
  • 'महाबाहो! श्रीकृष्ण जिस कार्य को करने की बात अपने मन में ठान लेते हैं, उसे कोई सारे उपाय करके भी उलट नहीं सकता। (9)
  • 'अत: महाबाहु श्रीकृष्ण जो कुछ कहें, उसे नि:शंक होकर करना चाहिए। वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण को मध्यस्थ बनाकर तुम शीघ्र ही पांडवों के साथ संधि कर लो। (10)
  • 'धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ कहेंगे, वह निश्चय ही धर्म और अर्थ के अनुकूल होगा। अत: तुम्हें अपने बंधु-बांधवों के साथ उनसे प्रिय वचन ही बोलना चाहिए।' (11)
  • दुर्योधन बोला- पितामह! नरेश्वर! अब इस बात की कोई संभावना नहीं है कि मैं जीवनभर पांडवों के साथ मिलकर इस सारी संपत्ति का उपभोग करूँ (12)
  • इस समय मैंने जो यह महान कार्य करने का निश्चय किया है, उसे सुनिए। पांडवों के सबसे बड़े सहारे श्रीकृष्ण को यहाँ आने पर मैं कैद कर लूँगा। (13)
  • उनके कैद हो जाने पर समस्त यदुवंशी, इस भूमंडल का राज्य तथा पांडव भी मेरी आज्ञा के अधीन हो जाएँगे। श्रीकृष्ण कल सबेरे यहाँ आ ही जाएँगे। (14)
  • अत: इस विषय में जो अच्छे उपाय हों, जिनसे श्रीकृष्ण को इन बातों का पता न लगे और मेरे इस मंतव्य में कोई विघ्न न पड़ सके, उन्हें आप मुझे बताइये।(15)
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! श्रीकृष्ण से छल करने के विषय में दुर्योधन की वह भयंकर बात सुनकर धृतराष्ट्र अपने मंत्रियों के साथ बहुत दुःखी और उदास हो गए। (16)
  • तदनंतर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा- 'प्रजापालक दुर्योधन! तुम ऐसी बात मुँह से न निकालो। यह सनातन धर्म नहीं है। (17)
  • 'श्रीकृष्ण इस समय दूत बनकर आ रहे हैं। वे हमारे प्रिय और संबंधी भी हैं तथा उन्होंने कौरवों का कोई अपराध भी नहीं किया है। ऐसी दशा में वे कैद करने के योग्य कैसे हो सकते हैं?' (18)
  • यह सुनकर भीष्म जी ने कहा- धृतराष्ट्र! तुम्हारा यह मंदबुद्धि पुत्र काल के वश में हो गया है। यह अपने हितैषी सुहृदों के कहने-समझाने पर भी अनर्थ को ही अपना रहा है, अर्थ को नहीं। (19)
  • तुम भी सगे-संबंधियों की बात न मानकर कुमार्ग पर चलने वाले इस पापसक्त पापात्मा का ही अनुसरण करते हो। (20)
  • अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण से भिड़कर तुम्हारा यह दुर्बुद्धि पुत्र अपने मंत्रियों सहित क्षण भर में नष्ट हो जाएगा।(21)
  • इसने धर्म का सर्वथा त्याग कर दिया है। अब मैं इस दुर्बुद्धि, पापी एवं क्रूर दुर्योधन की अनर्थ भरी बातें किसी प्रकार भी नहीं सुनना चाहता। (22)
  • ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ सत्यपराक्रमी वृद्ध पितामह भीष्म अत्यंत कुपित हो उस सभाभवन से उठकर चले गए। (23)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में दुर्योधन वाक्य विषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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