महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-22

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमनपर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पाण्‍डवों के पास भेजना और उनसे कहने के लिये संदेश देना

  • संजय कहते हैं- महाराज! महात्‍मा पाण्‍डवों ने जब हिरण्वती नदी के तटपर अपना पड़ाव डाल‍ दिया, तब कौरवों ने भी विधिपूर्वक दूसरे स्‍थान पर अपनी छावनी डाली। (1)
  • राजा दुर्योधन ने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्‍त राजाओं को समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्‍म सैनिकों की टुकडियों को तैनात कर दिया। (2)
  • भारत! इस प्रकार योद्धाओं के संरक्षण की व्‍यवस्‍था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्‍तरूप से मन्‍त्रणा की। (3)
  • राजेन्‍द्र! भरतनन्‍दन! नरश्रेष्‍ठ! दुर्योधन ने भाई कर्ण, भाई दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि से सम्‍भाषण एवं सलाह करके उलूक को एकान्‍त में बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- (4-5)
  • द्यूतकुशल शकुनि के पुत्र उलूक! तुम सोमकों और पाण्‍डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्‍ण के सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो- कितने ही वर्षों से जिसका विचार चल रहा था, वह सम्‍पूर्ण जगत के लिये अत्‍यन्‍त भंयकर कौरव-पाण्‍डवों का युद्ध अब सिर पर आ पहुँचा है। (6-7)
  • कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर! श्रीकृष्‍ण की सहायता पाकर भाइयों सहित गर्जना करते हुए तुमने संजय से जो आत्‍मश्‍लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्‍हें संजय ने कौरवों की सभा में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर सुनाया था, उन सबको सत्‍य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुम लोगों ने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो।' (8-9)
  • उलूक! तुम मेरे कहने से कुन्‍ती के ज्‍येष्‍ठ पुत्र युधिष्ठिर के सामने जाकर इस प्रकार कहना (10)
  • राजन तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमकों और केकयों सहित बड़े धर्मात्‍मा बनते हो। धर्मात्‍मा होकर अधर्म में कैसे मन लगा रहे हो। (11)
  • मेरा तो ऐसा विश्‍वास था कि तुमने समस्‍त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्‍य की भाँति सम्‍पूर्ण जगत का विनाश देखना चाहते हो। (12)
  • भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। सुना जाता है कि पूर्वकाल में जब देवताओं ने प्रह्लाद का राज्‍य छीन लिया था, तब उन्‍होंने इस श्‍लोक का गान किया था। (13)
  • देवताओ! साधारण ध्‍वज की भाँति जिसकी धर्ममयी ध्‍वजा सदा ऊँचे तक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्‍त रूप से पाप भी होते रहते हैं, उसके उस व्रत को विडालव्रत कहते हैं। (14)
  • नरेश्‍वर! इस विषय में तुम्‍हें यह उत्‍तम आख्‍यान सुना रहा हूं, जिसे नारदजी ने मेरे पिताजी से कहा था। (15)
  • राजन! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्‍ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगाजी के तटपर खड़ा रहा। वह किसी भी कार्य के लिये तनिक भी चेष्‍टा नहीं करता था। (16)
  • इस प्रकार समस्‍त देहधारियों पर विश्‍वास जमाने के लिये वह सभी प्राणियों से यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूँ। (17)
  • राजन! दीर्घकाल के पश्‍चात धीरे-धीरे पक्षियों ने उस पर विश्‍वास कर लिया। अब वे उस बिलाव के पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। (18)
  • पक्षियों को अपना आहार बनाने वाला वह बिलाव जब उन समस्‍त पक्षियों द्वारा अधिक आदर-सत्‍कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्‍ठान का भी अभीष्‍ट फल प्राप्‍त हो गया। (19)
  • तदनन्‍तर बहुत समय के पश्‍चात उस स्‍थान पर चूहे भी गये। वहाँ जाकर उन्‍होंने कठोर मत का पालन करने वाले उस धर्मात्‍मा बिलाव को देखा। (20)
  • भारत! दम्‍भयुक्‍त महान कर्मों के अनुष्‍ठान में लगे हुए उस बिलाव को देखकर उनके मन में यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ। (21)
  • हम सब लोगों के बहुत से मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहाँ जो वृद्ध तथा बालक हैं, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे। (22)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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