महाभारत सभा पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-19

पंचत्रिंश (35) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजसूय यज्ञ का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोणाचार्य आदि की अगवानी करके युधिष्ठिर ने उनके चरणों में प्रणाम किया और भीष्म, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, दुर्योधन और विविंशति से कहा- ‘इस यज्ञ में आप लोग सब प्रकार से मुझ पर अनुग्रह करें’। यहाँ मेरा जो यह महान् धन है, उसे आप लोग मेरी प्रार्थना मानकर इच्छानुसार सत्कर्मों में लगाइये। यज्ञदीक्षित युधिष्ठिर ने ऐसा कहकर उन सबको यथायोग्य अधिकारों में लगाया। भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्री की देख रेख तथा उसके बाँटने परोसने की व्यवस्था का अधिकार दु:शासन को दिया। ब्राह्मणों के स्वागत सत्कार का भार उन्होंने अश्वत्थामा को सौंप दिया। राजाओं की सेवा और सत्कार के लिये धर्मराज ने संजय को नियुक्त किया। कौन काम हुआ और कौन नहीं हुआ, इसकी देख रेख का काम महाबुद्धिमान भीष्म और द्रोणाचार्य को मिला।

उत्तम वर्ण के स्वर्ण तथा रत्नों को परखने, रखने और दक्षिणा देने के कार्य में राजा ने कृपाचार्य की नियुक्ति की। इसी प्रकार दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों को यथायोग्य भिन्न-भिन्न कार्यों में लगाया। नकुल के द्वारा सम्मानपूर्वक बुलाकर लाये हुए बाह्लीक, धृतराष्ट्र, सोमदत्त और जयद्रय वहाँ घर के मालिक की तरह सुखपूर्वक रहने और इच्छानुसार विचरने लगे। सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर जी धन को व्यय करने के कार्य में नियुक्त किये गये थे तथा राजा दुर्योधन कर देने वाले राजाओं से सब प्रकार की भेंट स्वीकार करने और व्यवस्थापूर्वक रखने का काम सँभाल रहे थे। सब लोगों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण सबको संतुष्ट करने की इच्छा से स्वयं ही ब्राह्मणों चरण पखारने में लगे थे, जिससे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। धर्मराज युधिष्ठिर और उनकी सभा को देखने की इच्छा से आये हुए राजाओं में से कोई भी ऐसा नहीं था, जो एक हजार स्वर्ण मुद्राओं से कम भेंट लाया हो। प्रत्येक राजा बहुसंख्यक रत्नों की भेंट देकर धर्मराज युधिष्ठिर के धन की वृद्धि करने लगा। सभी राजा यह होड़ लगाकर धन दे रहे थे कि कुरुनन्दन युधिष्ठिर किसी प्रकार मेरे ही दिये हुए रत्नों के दान से अपना यज्ञ सम्पूर्ण करें।

राजन्! जिनके शिखर यज्ञ देखने के लिये आये हुए देवताओं के विमानों का स्पर्श कर रहे थे, जो जलाशयों से परिपूर्ण और सेनाओं से घिरे हुए थे, उन सुन्दर भवनों, इन्द्रादि लोकपालों के विमानों, ब्राह्मणों के निवासस्थानों तथा परम समृद्धि से सम्पन्न रत्नों से परिपूर्ण वित्र एवं विमान के तुल्य बने हुए दिव्य गृहों से समागत राजाओं से तथा असीम श्री समृद्धियों से महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की वह सभा बड़ी शोमा पा रही थी। महाराज युधिष्ठिर अपनी अनुपम समृद्धि द्वारा वरुणदेवता की बराबरी कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में छ: अग्नियों की[1] स्थापना करके पर्याप्त दक्षिणा देकर उस यज्ञ के द्वारा भगवान का यजन किया। राजा ने उस यज्ञ में आये हुए सब लोगों को उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण करे संतुष्ट किया। वह यज्ञसमारोह अन्न से भरापूरा था, उसमें खाने पीने की सब सामग्रियाँ पर्याप्त मात्रा में सदा प्रस्तुत रहती थीं। वह यज्ञ खा पीकर तृप्त हुए लोगों से ही पूर्ण था। वहाँ कोई भूखा नहीं रहने पाता था तथा उव उत्सव समारोह में सब और रत्नों का ही उपहार दिया जाता था। मंत्रशिक्षा में निपुण महर्षियों द्वारा विस्तारपूर्वक किये जाने वाले उस यज्ञ में इडा (मंत्र पाठ एवं स्तुति), घृतहोम तथा लित आदि शाककल्य पदार्थों की आहुतियों से देवतालोग तृप्त हो गये। जिस प्रकार देवता तृप्त हुए उसी प्रकार दक्षिणा में अन्न और महान धन पाकर ब्राह्मण भी तृप्त हो गये। अधिक क्या कहा जाय, उस यज्ञ में सभी वर्ण के लोग बड़े प्रसन्न थे, सबको पूर्ण तृप्ति मिली थी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयपर्व में यज्ञ करणविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीलकण्ड की टीका में छ: अग्नियाँ इस प्रकार बतायी गयी हैं- आरम्भणीय, क्षत्र, धृति, व्युष्टि, द्विरात्र और दशपेय।

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