महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-14

सप्ताधिकशततम (107) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

गालव की चिंता और गरुड़ का आकर उन्हें आश्वासन देना

  • नारद जी ने कहा- राजन! उस समय परम बुद्धिमान विश्वामित्र के ऐसा कहने पर गालव मुनि तब से न कहीं बैठते, न सोते और न भोजन ही करते थे। (1)
  • वे चिंता और शोक में डूबे रहने के कारण पाण्डुवर्ण के हो गए। उनके शरीर में अस्थि-चर्ममात्र ही शेष रह गए थे। सुयोधन! अत्यंत शोक करते और चिंता की आग में दग्ध होते हुए दुखी गालव मुनि दुःख से विलाप करने लगे। (2)
  • 'मेरे ऐसे मित्र कहाँ, जो धन से पुष्ट हों? मुझे कहाँ से धन प्राप्त होगा? कहाँ मेरे लिए धन संग्रह करके रखा हुआ है? और कहाँ से मुझे चंद्रमा के समान श्वेतवर्ण वाले आठसौ घोड़े प्राप्त होंगे? (3)
  • 'ऐसी दशा में मुझे भोजन की रुचि कहाँ से हो? सुख भोगने की इच्छा कहाँ से हो? और इस जीवन से भी मुझे क्या प्रयोजन है? इस जीवन को सुरक्षित रखने के लिए मेरा जो उत्साह था, वह भी नष्ट हो गया। (4)
  • 'मैं समुद्र के उस पार अथवा पृथ्वी से बहुत दूर जाकर इस शरीर को त्याग दूंगा। अब मेरे जीवित रहने से क्या लाभ है? (5)
  • 'जो निर्धन है, जिसके अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई है तथा जो नाना प्रकार के शुभ कर्मफलों से वंचित होकर केवल ऋण का बोझ ढो रहा है, ऐसे मनुष्य को बिना उद्यम के जीवन धारण करने से क्या सुख होगा? (6)
  • 'जो इच्छानुसार प्रेम-संबंध स्थापित करके सुहृदों का धन भोगकर उनका प्रत्युपकार करने में असमर्थ हो, उसके जीने से मर जाना ही अच्छा है। (7)
  • 'जो 'करूंगा' ऐसा कहकर किसी कार्य को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ले, परंतु आगे चलकर उस कर्तव्य का पालन न कर सके, उस असत्य भाषण से दग्ध हुए पुरुष के 'इष्ट' और 'आपूर्त' सभी नष्ट हो जाते हैं। (8)
  • 'सत्य से शून्य मनुष्य का जीवन नहीं के बराबर है। मिथ्यावादी को संतति नहीं प्राप्त होती। झूठे को प्रभुत्व नहीं मिलता, फिर उसे शुभ गति कैसे प्राप्त हो सकती है? (9)
  • 'कृतघ्न मनुष्य को सुयश कहाँ? स्थान या प्रतिष्ठा कहाँ और सुख भी कहाँ है? कृतघ्न मानव अविश्वसनीय होता है, उसका कभी उद्धार नहीं होता है। (10)
  • 'निर्धन एवं पापी मनुष्य का जीवन वास्तव में जीवन नहीं है। पापी मनुष्य अपने कुटुंब का पोषण भी कैसे कर सकता है? पापात्मा[1] पुरुष अपने पुण्य कर्मों का नाश करता हुआ स्वयं भी निश्चय ही नष्ट हो जाता है। (11)
  • 'मैं पापी, कृतघ्न, कृपण और मिथ्यावादी हूँ, जिसने गुरु से तो अपना काम करा लिया, परंतु स्वयं जो उन्हें देने की प्रतिज्ञा की है, उसकी पूर्ति नहीं कर पा रहा हूँ। (12)
  • 'अत: मैं कोई उत्तम प्रयत्न करके अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगा। मैंने आज से पहले देवताओं से भी कभी कोई याचना नहीं की है। सब देवता यज्ञ में मेरा समादर करते हैं। (13)
  • 'अब मैं त्रिभुवन के स्वामी एवं जंगम जीवों के सर्वश्रेष्ठ आश्रय सुरश्रेष्ठ सच्चिदानंदघन भगवान विष्णु की शरण में जाता हूँ। (14)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निर्धन

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