दशम (10) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर! जो लोग हमारे राज्य के बाधक या लुटेरे थे, वे सभी अपराधी ही थे; अतः हमने उन्हें मार डाला। उन्हें मारकर धर्मतः प्राप्त हुई इस पृथ्वी का आप उपभोग कीजिये। जैसे कोई मनुष्य परिश्रम करके कुआ खोदे और वहाँ जल न मिलने पर देह में कीचड़ लपेटे हुए वहाँ से निराश लौट आये, उसी प्रकार हमारा किया- कराया यह सारा पराक्रम व्यर्थ होना चाहता है। जैसे कोई विशाल वृक्ष पर आरूढ़ हो वहाँ से मधु उतार लाये; परन्तु उसे खाने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाय; हमारा यह प्रयत्न भी वैसा ही हो रहा है। जैसे कोई मनुष्य मन में कोई आशा लेकर बहुत बड़ा मार्ग तै करे और वहाँ पहुँचने पर निराश लौटे, हमारा यह कार्य भी उसी तरह निष्फल हो रहा है। कुरुनन्दन! जैसे कोई मनुष्य शत्रुओं का वध करने के पश्चात् अपनी भी हत्या कर डाले, हमारा यह कर्म भी वैसा ही है। जैसे भूख मनुष्य भोजन और कामी पुरुषकामिनी को पाकर दैववश उसका उपभोग न करे, हमारा यह कर्म भी वैसा ही निष्फल हो रहा है। भरतवंशी नरेश! हम लोग ही यहाँ निन्दा के पात्र हैं कि आप-जैसे अल्पबुद्धि पुरुष को बड़ा भाई समझकर आप के पीछे-पीछे चलते हैं। हम बाहुबल से सम्पन्न, अस्त-शस्त्रों के विद्वान् और मनस्वी हैं तो भी असमर्थ पुरुषों के समान एक कायर भाई की आज्ञा में रहते हैं। हम लोग पहले अशरण मनुष्यों को शरण देने वाले थे; किंतु अब हमारा ही अर्थ नष्ट हो गया है। ऐसी दशा में अर्थ सिद्धि के लिये हमारा आश्रय लेने वाले लोग हमारी इस दुर्बलता पर कैसे दृष्टि नहीं डालेंगे? बन्धुओं! मेरा कथन कैसा है? इस पर विचार करो। शास्त्र का उपदेश यह है कि आपत्तिकाल में या बुढ़ापे से जर्जर हो जाने पर अथवा शत्रुओं द्वारा धन-सम्पत्ति से वंचित कर दिये जाने पर मनुष्य को संन्यास ग्रहण करना चाहिये। अतः(जबकि हमारे ऊपर पूर्वाक्त संकट नहीं आया है) विद्वान् पुरुष ऐसे अवसर में त्याग या संन्यास की प्रशंसा नहीं करते हैं। सूक्ष्मदर्शी पुरुष तो ऐसे समय में क्षत्रिय के लिये संन्यास लेना उलटे धर्म का उल्लंघन मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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