एकोशीतितम (81) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोशीतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
बभ्रुवाहन की माता ने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है। यह तो सदा दासी की भाँति मेरी आज्ञा के अधीन रहती है। यहाँ आकर मैंने जो–जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूँ; सुनिये। प्रभो! कुरुनन्दन! पहले तो मैं आपके चरणों में सिर रखकर आपको प्रसन्न करना चाहती हूँ। यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें; क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्नता के लिये ही किया है। महाबाहु धनंजय! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्यान देकर सुनिये। पार्थ! महाभारत-युद्ध में आपने जो शान्तनुकुमार महाराज को भीष्म को अधर्मपूर्वक मारा है, उस पाप का यह प्रायश्चित कर दिया गया। वीर! आपे अपने साथ जूझते हुए भीष्म जी को नहीं मारा है, वे शिखण्डी की आड़ लेकर आपने उनका वध किया था। उसकी शान्ति किये बिना ही यदि आप प्राणों का परित्याग करते तो उस पापकर्म के प्रभाव से निश्चय ही नरक में पड़ते। महामते! पृथ्वीपाल! पूर्वकाल में वसुओं तथा गंगा जी ने इसी रूप में उस पाप की शान्ति निश्चित की थी; जिसे आप अपने पुत्र से पराजय के रूप में प्राप्त किया है। पहले की बात है, एक दिन मैं गंगा जी के तट पर गयी थी। नरेश्वर! वहाँ शान्तनुनन्दन भीष्म जी के मारे जाने के बाद वसुओं ने गंगा तट पर आकर आपके सम्बन्ध में जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था। वसु नामक देवता महानदी गंगा के तट पर एकत्र हो स्नान करके भागीरथी की सम्मति से यह भयानक वचन बोले- "भाविनी! ये शान्तनुनन्दन भीष्म संग्राम में दूसरे के साथ उलझे हुए थे। अर्जुन के साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्यवाची अर्जुन ने इनका वध किया है। इस अपराध के कारण हम लोग आज अर्जुन को शाप देना चाहते हैं।" यह सुनकर गंगा जी ने कहा– "हाँ ऐसा ही होना चाहिये।" अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहन को छाती से लगा रहे हैं उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं और पाताल में प्रवेश करके मैंने अपने पिता से यह समाचार कह सुनाया। यह सुनकर पिता जी को भी बड़ा खेद हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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