महाभारत वन पर्व अध्याय 282 श्लोक 1-17

द्वयशीत्यधिकद्वशततम (282) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


श्रीराम का सुग्रीव पर कोप, सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना तथा श्रीहनुमान जी का लौटकर लंकायात्रा का वृत्तान्त निवेदन करना

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इधर श्रीराम और लक्ष्मण सुग्रीव से सुरक्षित हो माल्यवान् पर्वत के पृष्ठ भाग पर रहने लगे। कुछ काल के अनन्तर जब वर्षा ऋतु बीत गयी, तब उन्हें आकाश निर्मल दिखाई दिया। शरद् ऋतु के निर्मल आकाश में ग्रह, नक्षत्र तथा ताराओं सहित विमल चन्द्रमा का दर्शन करके शत्रुसंहारक श्रीराम अभी पर्वत पर सोये ही थे कि कुमुद, उत्पल और पद्मों की सुगन्घ लेकर बहती हुई शीतल एवं सुखद वायु ने उन्हें सहसा जगा दिया। धर्मात्मा श्रीराम को प्रातःकाल राक्षस के भवन में कैद हुई अपनी पत्नी सीता का स्मरण हो आया और वे खिन्न-चित्त होकर वीरवर लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ‘लक्ष्मण! जाओ और पता लगाओ कि किष्किन्धा में वानरराज सुग्रीव क्या कर रहा है? जान पड़ता है, स्वार्थसाधन की कला में पण्डित कृतघ्न सुग्रीव विषयभोगों में आसक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गया है। उस वानर कुलकलंक को मैंने ही राज्य पर अभिषिक्त किया है। इसके कारण सम्पूर्ण वानर, लंगूर तथा रीछ उसकी सेवा करते हैं।

रघुकुलतिलक महाबाहु लक्ष्मण! इसी सुग्रीव के लिये उन दिनों मैंने तुम्हारे साथ किष्किन्धा के उद्यान में जाकर बाली का वध किया था। सुमित्रानन्दन! मैं तो उस नीच वानर को इस भूतल पर कृतघ्न मानता हूँ, क्योंकि वह मूर्ख इस अवस्था में पहुँचकर मुझे भूल गया है। मैं तो समझता हूँ, वह अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन करना ही नहीं जानता और अपनी मन्दबुद्धि के कारण मुझ उपकारी की भी वह निश्चय ही अवहेलना कर रहा है। यदि वह विषयसुख में ही आसक्त हो सीता की खोज के लिये कुछ उद्योग न कर रहा हो, तो उसे भी तुम बाली के मार्ग से उसी लोक में पहुँचा देना, जहाँ एक-न-एक दिन सभी प्राणियों को जाना पड़ता है। लक्ष्मण! यदि वानरराज हमारे कार्य के लिये कुछ चेष्टा कर रहा हो, तो उसे साथ लेकर तुरंत लौट आना, देर न लगाना’।

भाई के ऐसा कहने पर गुरुजनों की आज्ञा के पालन तथा हिताचरण में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण बाण और प्रत्यन्चा सहित सुन्दर धनुष हाथ में लेकर वहाँ से चल दिये। किष्किन्धा के द्वार पर पहुँचकर वे बेरोक-टोक भीतर घुस गये। लक्ष्मण क्रोध में भरे हुए आ रहे हैं, यह जानकर राजा सुग्रीव उनकी अगवानी के लिये आगे बढ़ आया। पत्नी सहित वानरराज सुग्रीव विनीत भाव से लक्ष्मण जी की पूजा करके उन्हें साथ ले गये। किसी से भी भय न मानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण ने उस पूजा (आदर-सत्कार) से प्रसन्न हो उनसे श्रीरामचन्द्र जी की कही हुई सारी बातें कह सुनायी। राजेन्द्र! वह सब कुछ पूरा-पूरा सुनकर नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ते हुए भार्या तथा सेवकों सहित वानरराज सुग्रीव ने नरश्रेष्ठ लक्ष्मण से सहर्ष निवेदन किया- ‘लक्ष्मण! मैं न तो दुर्बुद्धि हूँ, न अकृतज्ञ हूँ और न निर्दयी ही हूँ। मैंने सीता की खोज के लिये जो प्रयत्न किया है, उसे सुनिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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