षड्विंशत्यधिकशततम (126) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षड्विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! प्राचीन काल की बात है, एक बार देवराज इन्द्र ने भगवान विष्णु से पूछा- ‘भगवन! आप किस कर्म से प्रसन्न होते हैं? किस प्रकार आपको सन्तुष्ट किया जा सकता है?’ सुरेन्द्र के इस प्रकार पूछने पर जगदीश्वर श्रीहरि ने कहा। भगवान विष्णु बोले- इन्द्र! ब्राह्मणों की निन्दा करना मेरे साथ महान द्वेष करने के समान है तथा ब्राह्मणों की पूजा करने से सदा मेरी भी पूजा हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिये। भोजन के पश्चात अपने दोनों पैरों की सेवा भी करे अर्थात पैरों को भलीभाँति धो ले तथा तीर्थ की मृत्तिका से सुदर्शन चक्र बनाकर उस पर मेरी पूजा करे और नाना प्रकार की भेंट चढ़ावे। जो ऐसा करते हैं, उन मनुष्यों पर मैं सन्तुष्ट होता हूँ। जो मनुष्य बौने ब्राह्मण और पानी से निकले हुए वराह को देखकर नमस्कार करता और उनकी उठायी मृत्तिका को मस्तक से लगाता है, ऐसे लोगों को कभी कोई अशुभ या पाप नहीं प्राप्त होता। जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्ष, गोरोचना और गौ की सदा पूजा करता है, उसके द्वारा देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत की पूजा हो जाती है। उस रूप में उनके द्वारा की हुई पूजा को मैं यर्थाथ रूप से अपनी पूजा मानकर ग्रहण करता हूँ। जब तक ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं, तब तक यह पूजा ही मेरी पूजा है। इससे भिन्न दूसरे प्रकार की पूजा मेरी पूजा नहीं है। अल्पबुद्धि मानव अन्य प्रकार से मेरी व्यर्थ पूजा करते हैं। मैं उसे ग्रहण नहीं करता हूँ। वह पूजा मुझे संतोष प्रदान करने वाली नहीं है। इन्द्र ने पूछा- भगवन! आप चक्र, दोनों पैर, बौने ब्राह्मण, वराह और उनके द्वारा उठायी हुई मिट्टी की प्रशंसा किसलिये करते हैं? आप ही प्राणियों की सृष्टि करते हैं, आप ही समस्त प्रजा का संहार करते हैं और आप ही मनुष्यों सहित सम्पूर्ण प्राणियों की सनातन प्रकृति (मूल कारण) हैं। भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब भगवान विष्णु ने हँसकर इस प्रकार कहा- ‘देवराज! मैंने चक्र से दैत्यों को मारा है। दोनों पैरों से पृथ्वी को आक्रान्त किया है। वाराहरूप धारण करके हिरण्याक्ष दैत्य को धराशायी किया है और वामन ब्राह्मण का रूप ग्रहण करके मैंने राजा बलि को जीता है। इस तरह इन सब की पूजा करने से मैं महामना मनुष्यों पर संतुष्ट होता हूँ। जो मेरी पूजा करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा। ब्रह्मचारी ब्राह्मण को घर पर आया देख गृहस्थ पुरुष ब्राह्मण को प्रथम भोजन कराये, तत्पश्चात स्वयं अवशिष्ट अन्न को ग्रहण करे तो उसका वह भोजन अमृत के समान माना गया है। जो प्रात:काल की संध्या करके सूर्य के सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीर्थों में स्नान का फल मिलता है और वह सब पापों से छुटकारा पा जाता है। तपोधनों! तुम लोगों ने जो संशय पूछा है, उसके समाधान के लिये मैंने यह सारा गूढ़ रहस्य तुम्हें बताया है। बताओ और क्या कहूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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