सप्तत्रिंश (37) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! तदनन्तर प्रकाशमान सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी, शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ एवं रथ पर बैठा हुआ रथिश्रेष्ठ कर्ण यह देखकर कि भीष्म और द्रोणाचार्य के पराक्रम का लोप हो गया, अर्जुन के अलौकिक कर्म का चिन्तन करके अभिमान और दर्प से दग्ध हो उठा तथा क्रोध से जलता हुआ-सा लंबी-लंबी साँस खींचने लगा। उस समय उसने शल्य को सम्बोधित करके कहा- ‘राजन! मैं हाथ में आयुध लेकर रथ पर बैठा रहूँ, उस अवस्था में यदि वज्र धारण करने वाले इन्द्र भी कुपित होकर आ जायें तो उनसे भी मुझे भय न होगा। भीष्म आदि महारथियों को रणभूमि में सदा के लिए सोया हुआ देखकर भी अस्थिरता (घबराहट) मुझसे दूर ही रहती है। ‘भीष्म और द्रोणाचार्य देवराज इन्द्र और विष्णु के समान पराक्रमी, सबके द्वारा प्रशंसित, रथों, घोड़ों और गजराजों को भी मथ डालने वाले तथा अवध्य-तुल्य थे, जब उन्हें भी शत्रुओं ने मार डाला, तब मेरी क्या गिनती है? यह सोचकर भी आज मुझे रणभूमि में कोई भय नहीं हो रहा है। ‘युद्ध स्थल में अत्यन्त बलवान नरेशों को सारथि, रथ और हाथियों सहित शत्रुओं द्वारा मारा गया देखकर भी महान अस्त्रवेत्ता ब्राह्मण शिरोमणि आचार्य द्रोण ने रणभूमि में समस्त शत्रुओं का वध क्यें नहीं कर डाला? ‘अतः महासमर में मारे गये द्रोणाचार्य का स्मरण करके मैं सत्य कहता हूँ, कौरवों! तुम लोग ध्यान देकर सुनो। मेरे सिवा दूसरा कोई रणभूमि में अर्जुन का वेग नहीं सह सकता। वे सामने आये हुए भयानक रूपघारी मृत्यु के समान हैं। ‘शिक्षा, सावधानी, बल, धैर्य, महान अस्त्र और विनय- ये सभी सद्गुण द्रोणाचार्य में विद्यमान थे। वे महात्मा द्रोण भी यदि मृत्यु के वश में पड़ गये तो अन्य सब लोगों को भी मैं मरणासन्न ही समझता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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