महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-23

अष्‍टपंचाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सैन्यनिर्याण पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय अति यशस्‍वी दाक्षिणात्‍य देश के अधि‍पति भोजवंशी तथा इन्‍द्र के सखा हिरण्‍यरोमा नाम वाले संकल्‍पों के स्‍वामी महामना भीष्मकका सगा पुत्र, सम्‍पूर्ण दिशाओं में विख्‍यात रुक्मी, पाण्‍डवों के पास आया। (1-2)
  • जिसने गन्‍धामादन निवासी किं पुरुष प्रवर द्रुमका शिष्‍य होकर चारों पादों से युक्‍त सम्‍पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्‍त की थी। (3)
  • जिस महाबाहु ने गाण्डीव धनुष के तेज के समान ही तेजस्‍वी विजय नामक धनुष इन्‍द्र देवता से प्राप्‍त किया था। वह दिव्‍य लक्ष्‍णों से सम्‍पन्न धनुष शांरग धनुष की समानता करता था। (4)
  • द्युलोक में विचरने वाले देवताओं के ये तीन ही धनुष दिव्‍य माने गये हैं। उनमें से गाण्डीव धनुष वरुण का, विजयदेवराज इन्‍द्र का तथा शांरग नामक दिव्‍य तेजस्‍वी धनुष भगवान विष्‍णु का बताया गया है। (5)
  • शत्रुसेना को भयभीत करने वाले उस शांरग धनुष को भगवान श्रीकृष्ण ने धारण किया और खाण्‍डवदाह के समय इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने साक्षात अग्निदेव से गाण्‍डीव धनुष प्राप्‍त किया था। (6)
  • महातेजस्‍वी रुक्‍मी ने द्रुम से विजय नामक धनुष पाया था। भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने तेज और बल से मुर दैत्‍य के पाशों का उच्‍छेद करके भूमि पुत्र नरकासुर को जीतकर जब उसके यहाँ से अदिति के मणिमय कुण्‍डल रत्‍नों को अपने अधिकार में कर लिया, उसी समय उन्‍हें शारंग नामक उत्‍तम धनुष भी प्राप्‍त हुआ था। (7-8)
  • रुक्‍मी मेघ की गर्जना के समान भयानक टंकार करने वाले विजय नामक धनुष को पाकर सम्‍पूर्ण जगत को भयभीत-सा करता हुआ पाण्‍डवों के यहाँ आया। (9)
  • यह वही वीर रुक्‍मी था, जो अपने बाहुल्‍य के घमंड में आकर पहले परम बुद्धिमान भगवान श्रीक्रष्‍ण के द्वारा किये गये रुक्मिणी के अपहरण को नहीं सह सका था। (10)
  • वह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ था। उसने यह प्रतिज्ञा करके कि मैं वृष्णिवंशी श्रीकृष्‍ण को मारे बिना अपने नगर को नहीं लौटूंगा, उनका पीछा किया था। (11)
  • उस समय उसके साथ विचित्र आयुधों और कवचों से सुशोभित, दूर तक के लक्ष्‍य को मार गिराने में समर्थ तथा बढी हुई गंगा के समान विशाल चतुरंगिणी सेना थी। (12)
  • राजन! योगेश्‍वर भगवान श्रीकृष्‍ण के पास पहुँचकर उनसे पराजित होने के कारण लज्जित हो वह पुन: कुण्डिनपुर को नहीं लौटा। (13)
  • भगवान श्रीकृष्‍ण ने जहाँ युद्ध में शत्रुवीरों का हनन करने वाले रुक्‍मी को हराया था, वहीं रुक्‍मी ने भोजकट नामक उत्‍तम नगर बसाया। (14)
  • राजन प्रचुर हाथी-घोड़ों वाली विशाल सेना से सम्‍पन्‍न वह भोजकट नामक नगर सम्‍पूर्ण भूमण्‍डल में विख्‍यात है। (15)
  • महापराक्रमी भोजराम रुक्मी एक अक्षौहिणी विशाल सेना से घिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक पाण्‍डवों के पास आया। (16)
  • उसने कवच, धनुष, दस्‍ताने, खंड्ग और तरकस धारण किये सूर्य के समान तेजस्‍वी ध्‍वज के साथ पाण्‍डवों की विशाल सेना में प्रवेश किया। (17)
  • वह वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण का प्रिय करने की इच्‍छा से आया था। पाण्‍डवों को उसके आगमन की सूचना दी गयी, तब राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और उसका यथायोग्‍य आदर-सत्‍कार किया। (18)
  • पाण्‍डवों ने रुक्‍मी का विधिपूर्वक आदर-सत्‍कार करके उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। रुक्‍मी ने भी उन सबको प्रेमपूर्वक अपना कर सैनिकों सहित विश्राम किया। (19)
  • तदनन्‍तर वीरों के बीच में बैठकर उसने कुन्‍तीकुमार अर्जुन से कहा- ‘पाण्‍डुनन्‍दन! यदि तुम डरे हुए हो तो मैं युद्ध में तुम्‍हारी सहायता के लिये आ पहुँचा हूँ। मैं इस महायुद्ध में तुम्‍हारी वह सहायता करूँगा, जो तुम्‍हारे शत्रुओं के लिय असहय हो उठेगी। (20-21)
  • इस जगत में मेरे समान पराक्रमी दूसरा कोई पुरुष नहीं है। पाण्‍डुकुमार! तुम शत्रुओं का जो भाग मुझे सौंप दोगे, मैं समरभूमि में उसका संहार कर डालूँगा। (22)
  • ‘मेरे हिस्‍से में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा वीरवर भीष्‍म एवं कर्ण ही क्‍यों न हो, किसी को जीवित नहीं छोडूंगा। अथवा यहाँ पधारे हुए ये सब राजा चुपचाप खड़े रहें। मैं अकेला ही समरभूमियों में तुम्‍हारे सारे शत्रुओं का वध करके तुम्‍हें पृथ्‍वी का राज्‍य अर्पित कर दूंगा (23)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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