त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-2 का हिन्दी अनुवाद ज्ञान‚विज्ञान और जगत्की उत्पत्तिका‚आसुरी और दैवी सम्पदावालों का‚प्रभावसहित भगवान् के स्वरूप का‚सकाम-निष्काम उपासनाका एवं भगवद्-भक्ति की महिता का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! तुझ दोषदृष्टि रहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली-भाँति कहूंगा, जिसको तू दुःख रूप संसार से[1] मुक्त हो जायगा। यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा,[2] सब गोपनीयों का राजा,[3] अति पवित्र,[4] अति उत्तम, प्रत्यक्ष[5] फल वाला,[6] धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम[7] और अविनाशी है। सम्बन्ध- जब विज्ञान सहित ज्ञान की इतनी महिमा है और इसका साधन भी इतना सुगम है तो फिर सभी मनुष्य इसे धारण क्यों नहीं करते? इस जिज्ञासा पर अश्रद्धा को ही इसमें प्रधान कारण दिखलाने के लिये भगवान् अब इस पर श्रद्धा न करने वाले मनुष्यों की निन्दा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ’इस श्लोक में ‘अशुभʼ शब्द समस्त दु:खों का, उनके हेतुभूत कर्मों का, दुर्गुणों का, जन्म-मरण रूप संसार बन्धन का और इन सब के कारण रूप अज्ञान का वाचक है। इन सबसे सदा के लिये सम्पूर्णतया छूट जाना और परमानन्द स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त हो जाना ही ‘अशुभ मुक्त’ होना है।
- ↑ संसार में जितनी भी ज्ञात और अज्ञात विद्याएँ हैं, यह उन सब में बढ़कर है जिसने इस विद्या का यथार्थ अनुभव कर लिया है उसके लिये फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये ‘राजविद्या’ कहा गया है।
- ↑ इसमें भगवान् के सगुण-निर्गुण और साकार-निराकार स्वरूप के तत्त्व का, उनके गुण, प्रभाव और महत्त्व का, उनकी उपासना-विधि का और उसके फल का भली-भाँति निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें भगवान् ने अपना समस्त रहस्य खोलकर यह तत्त्व समझा दिया है कि मैं जो श्रीकृष्ण रूप में तुम्हारे सामने विराजित हूँ, इस समस्त जगत् का कर्ता, हर्ता, सबका आधार, सर्वशक्तिमान, परब्रह्म परमेश्वर और साक्षात् पुरुषोत्तम हॅू। तुम सब प्रकार से मेरी शरण आ जाओ। इस प्रकार के परम गोपनीय रहस्य की बात अर्जुन -जैसे दोषदृष्टिहीन परम श्रद्धावान् भक्त के सामने ही कही जा सकती है, हर एक के सामने नहीं। इसीलिये इसे ‘राजगुह्य’ बतलाया गया है।
- ↑ यह उपदेश इतना पावन करने वाला है कि जो कोई भी इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण-मनन और इसके अनुसार आचरण करता है, यह उसके समस्त पापों और अवगुणों का समूल नाश करके उसे सदा के लिये परम निशुद्ध बना देता है। इसीलिये इसे ‘पवित्र’ कहा गया है।
- ↑ विज्ञान सहित इस ज्ञान का फल श्राद्धादि कर्मों की भाँति अदृष्ट नहीं है। साधक ज्यों-ज्यों इसकी और आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसके दुर्गुणों, दुराचारों और दुःखों का नाश होकर, उसे परम सुख का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है जिसको इसकी पूर्ण रूप से उपलब्धि हो जाती है, वह तो तुरंत ही परमसुख और परम शान्ति के समुद्र, परम प्रेमी, परम दयालु और सबके सुहृद्, साक्षात् भगवान् को ही प्राप्त हो जाता है। इसीलिये यह ‘प्रत्यक्षावगम’ है।
- ↑ जैसे सकाम कर्म अपना फल देकर समाप्त हो जाता है और जैसे सांसारिक विद्या एक बार पढ़ लेने के बाद, यदि उसका बार-बार अभ्यास न किया जाय जो नष्ट हो जाती है- भगवान् का यह ज्ञान-विज्ञान वैसे नष्ट नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त इसका फल भी अविनाशी है इसलिये इसे ‘अव्यय’ कहा गया है।
- ↑ इसमें न तो किसी प्रकार के बाहरी आयोजन की आवश्यकता है और न कोई आयास ही करना पड़ता है। सिद्ध होने के बाद की बात तो दूर रही, साधन के आरम्भ से ही इसमें साधकों को शान्ति और सुख का अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे साधन करने में बड़ा सुगम बतलाया है।
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