महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-12

अष्टात्रिंशदधिकशततम (148) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश तथा उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति


भीष्‍मजी कहते है- युधिष्ठिर! उस बहेलिये के चले जाने पर कबूतरी अपने प‍ति का स्‍मरण करके शोक से कातर हो उठी और दु:खमग्‍न हो रोती हुई विलाप करने लगी। ‘प्रियतम! आपने कभी मेरा अप्रिय किया हो, इसका मुझे स्‍मरण नहीं है। सारी स्त्रियां अनेक पुत्रों से युक्‍त होने पर भी पतिहीन होने पर शोक में डूब जाती हैं। ‘पतिहीन तपस्विनी नारी अपने भाई-बन्‍धुओं के लिये भी शोचनीय बन जाती है। आपने सदा ही मेरा लाड-प्‍यार किया और बड़े सम्‍मान के साथ मुझे आदरपूर्वक रखा। ‘आपने स्‍नेहसिक्‍त, सुखद, मनोहर, तथा मधुर वचनों द्वारा मुझे आनन्दित किया। मैंने आपके साथ पर्वतों की गुफाओं में नदियों के तटों पर, झरनों के आस-पास तथा वृक्षों की सुरम्‍य शिखाओं पर रमण किया है।

आकाशयात्रा में भी मैं सदा आपके साथ सुखपूर्वक विचरण करती रही हूँ। ‘प्राणनाथ पहले मैं जिस प्रकार आपके साथ आनन्‍दपूर्वक रमण करती थी, अब उन सब सुखों में से कुछ भी मेरे लिये शेष नहीं रह गया है। पिता, भ्राता और पुत्र-ये सब लोग नारी को परिमित सुख देते हैं, केवल पति ही उसे अपरिमिेत या असीम सुख प्रदान करता है। ऐसे पति की कौन स्‍त्री पूजा नहीं करेगी? ‘स्‍त्री के लिये पति के समान कोई रक्षक नहीं है और के तुल्‍य कोई सुख नहीं है। उसके लिये तो धन और सर्वस्‍व को त्‍यागकर पति ही एकमात्र गति है।

‘नाथ! अब तुम्‍हारे बिना यहाँ इस जीवन से भी क्या प्रयोजन है? ऐसी कौन सी पतिव्रता स्‍त्री होगी, जो पति के बिना जीवित रह सकेगी? इस तरह अनेक प्रकार से करुणाजनक विलाप करके अत्‍यन्‍त दु:ख में डूबी हुई वह पतिव्रता कबूतरी उसी प्रज्‍वलित अग्नि में समा गयी।

तदनन्‍तर उसने अपने पति को देखा। वह विचित्र अंगद धारण किये विमान पर बैठा था और बहुत-से पुण्‍यात्‍मा महात्‍मा उसकी भूरि–भूरि प्रशंसा कर रहे थे। उसने विचित्र हार और वस्‍त्र धारण कर रखे थे और वह सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित था। अरबों पुण्‍यकर्मी पुरुषों से युक्‍त विमानों ने उसे घेर रखा था। इस प्रकार श्रेष्‍ठ विमान पर बैठा हुआ वह पक्षी अपनी स्त्री के सहित स्‍वर्गलोक को चला गया और अपने सत्‍कर्म से पूजित हो वहाँ आनन्‍दपूर्वक रहने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत आपद्धर्मपर्व में कबूतर का स्‍वर्गगमनविषयक एक सौ अड़तालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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