सप्तम (7) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- "महापुरुषों में प्रधान भरतश्रेष्ठ! अब मैं समस्त शुभ कर्मों के फल क्या हैं? यह पूछ रहा हूँ, अत: यही बताइये।" भीष्म जी ने कहा- "भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, यह ऋषियों के लिय भी रहस्य का विषय है, किंतु मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। सुनो, मरने के बाद जिस मनुष्य को जैसी चिर अभिलषित गति मिलती है, उसका भी वर्णन करता हूँ। मनुष्य जिस-जिस (स्थूल या सूक्ष्म) शरीर से जो-जो कर्म करता है, उसी-उसी शरीर से उस-उस कर्म का फल भोगता है। जिस-जिस अवस्था में वह जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्म की उसी-उसी अवस्था में वह उसका फल भोगता है। पांचों इन्द्रियों द्वारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पांचों इन्द्रियाँ और छठा मन- ये उसके कर्म के साक्षी होते हैं। अत: मनुष्य को उचित है कि यदि कोई अतिथि घर पर आ जाये तो उसको प्रसन्न दृष्टि से देखे। उसकी सेवा में मन लगावे। मीठी बोली बोलकर उसे संतुष्ट करे। जब वह जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे कुछ दूर तक जाये और जब तक वह रहे, उसके स्वागत-सत्कार में लगा रहे- ये पांच काम करना गृहस्थ के लिये पांच प्रकार की दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ कहलाता है। जो थके-मांदे अपरिचित पथिक को प्रसन्नतापूर्वक अन्न दान करता है, उसे महान पुण्यफल की प्राप्ति होती है। जो वानप्रस्थी वेदी पर शयन करते हैं, उन्हें जन्मान्तर में उत्तम गृह और शय्या की प्राप्ति होती है। जो चीर और वल्कल वस्त्र पहनते हैं, उन्हें दूसरे जन्म में उत्तम वस्त्र और उत्तम आभूषणों की प्राप्ति होती है। जिसका चित्त योग युक्त होता है, उस तपोधन पुरुष को दूसरे जन्म में अच्छे-अच्छे वाहन और यान उपलबध होते हैं तथा अग्नि की उपासना करने वाले राजा को जन्मान्तर में पौरुष की प्राप्ति होती है। रसों का परित्याग करने से सौभाग्य की और मांस का त्याग करने से पशुओं तथा पुत्रों की प्राप्ति होती है। जो तपस्वी नीचे सिर करके लटकता है अथवा जल में निवास करता है, तथा जो सदा ही अकेला सोता (ब्रह्मचर्य का पालन करता) है, वह मनोवांछित गति को प्राप्त होता है। जो अतिथि को पैर धोने के लिये जल, बैठने के लिये आसन, प्रकाश के लिये दीपक, खाने के लिए अन्न और ठहरने के लिए घर देता है, इस प्रकार अतिथि का सत्कार करने के लिय इन पांच वस्तुओं का दान ‘पंचदक्षिण यज्ञ’ कहलाता है। जो वीरासन रणभूमि में जाकर वीरशय्या (मृत्यु) को प्राप्त हो वीरस्थान (स्वर्गलोक) में जाता है, उसे अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। वे लोक सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने वाले होते हैं। प्रजानाथ! मनुष्य दान से धन पाता है, मौन-व्रत के पालन से दूसरों द्वारा आज्ञापालन कराने की शक्ति प्राप्त करता है, तपस्या से भोग और ब्रह्मचर्य-पालन से जीवन (आयु) की उपलब्धि होती है। अंहिसा धर्म के आचरण से रूप, ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फल की प्राप्ति होती है। फल-मूल खाने वाले को राज्य और पत्ते चबाकर रहने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। राजन! जो आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठता है, उसके लिए सर्वत्र सुख बताया गया है। शाकाहारी की दीक्षा लेने पर गोधन की प्राप्ति होती है और तृण खाकर रहने वाला पुरुष स्वर्ग लोक में जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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