अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! राजा द्रुपद उस ब्राह्मण को कन्या देना चाहते हैं, यह जानकर उस समय राजाओं को बड़ा क्रोध हुआ और वे एक दूसरे को देखकर तथा समीप आकर इस प्रकार कहने लगे- ‘(अहो! देखो तो सही,) यह राजा द्रुपद (यहां) एकत्र हुए हम लोगों को तिनके की तरह तुच्छ समझकर और हमारा उल्लंघन करके युवतियों में श्रेष्ठ अपनी कन्या का विवाह एक ब्राह्मण के साथ करना चाहता है। यह वृक्ष लगाकर अब फल लगने के समय उसे काटकर गिरा रहा है। अत: हम लोग इस दुरात्मा को मार डालें; क्योंकि यह हमें कुछ नहीं समझ रहा है। यह राजा द्रुपद गुणों के कारण हमसे वृद्धोचित सम्मान पाने का अधिकारी भी नहीं है, राजाओं से द्वेष करने वाले इस दुराचारी को पुत्रसहित मार डालें। पहले तो इसने हम सब राजाओं को बुलाकर सत्कार किया, उत्तम गुणयुक्त भोजन कराया और ऐसा करने के बाद यह हमारा अपमान कर रहा है। देवताओं के समूह की भाँति उत्तम नीति से सुशोभित राजाओं के इस समुदाय में क्या इसने किसी भी नरेश को अपनी पुत्री के योग्य नहीं देखा है? स्वयंवर में कन्या द्वारा वरण प्राप्त करने का अधिकार ही ब्राह्मणों को नहीं है। (लोगों में) यह बात प्रसिद्ध है कि स्वयंवर क्षत्रियों का ही होता है। अथवा राजाओं! यदि यह कन्या हम लोगों में से किसी को अपना पति बनाना न चाहे तो हम इसे जलती हुई आग में झोंककर अपने-अपने राज्य को चल दें। यद्यपि इस ब्राह्मण ने चपलता के कारण अथवा राजकन्या के प्रति लोभ होने से हम राजाओं का अप्रिय किया है, तथापि ब्राह्मण होने के कारण हमें किसी प्रकार इसका वध नहीं करना चाहिये। क्योंकि हमारा राज्य, जीवन, रत्न, पुत्र-पौत्र तथा और भी जो धन-वैभव है, वह सब ब्राह्मणों के लिये ही है। (ब्राह्मणों के लिये हम इन सब चीजों का त्याग कर सकते हैं)। द्रुपद को तो हम इसलिये दण्ड देना चाहते हैं कि (हमारा) अपमान न हो, हमारे धर्म की रक्षा हो और दूसरे स्वयंवरों की भी ऐसी दुर्गती न हो।’ यों कहकर परिघ-जैसी मोटी बांहों वाले वे श्रेष्ठ भूपाल हर्ष (और उत्साह) में भरकर हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये द्रुपद को मारने की इच्छा से उनकी ओर वेग से दौड़े। उन बहुत से राजाओं को क्रोध में भरकर धनुष लिये आते देख द्रुपद अत्यन्त भयभीत हो ब्राह्मणों की शरण में गये। मद की धारा बहाने वाले मन्दोन्मत्त गजराजों की भाँति उन नरेशों को वेग से आते देख शत्रुदमन महाधनुर्धर पाण्डु-नन्दन भीम और अर्जुन उनका सामना करने के लिये आ गये। तब हाथों में गोह के चमड़े के दस्ताने पहने और आयुधों को ऊपर उठाये अमर्ष में भरे हुए वे (सभी) नरेश कुरुराजकुमार अर्जुन और भीमसेन को मारने के लिये उन पर टूट पड़े। तब तो वज्र के समान शक्तिशाली तथा अद्भुत एवं भयानक कर्म करने वाले अद्वितीय वीर महाबली भीमसेन ने गजराज की भाँति अपने दोनों हाथों से एक वृक्ष को उखाड़ लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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