महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 128 श्लोक 1-11

अष्टाविंशत्यधिकशततम (128) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


वायु के द्वारा धर्माधर्म के रहस्‍य का वर्णन

वायु देव ने क‍हा- मैं मनुष्‍यों के लिये सुखदायक धर्म का किंचित वर्णन करता हूँ और रहस्‍य सहित जो दोष हैं, उन्‍हें भी बतलाता हूँ। तुम सब लोग एकाग्रचित्त होकर सुनो।

प्रतिदिन अग्निहोत्र करना चाहिये। श्राद्ध के दिन उत्तम अन्‍न के द्वारा ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिये। पितरों के लिये दीपदान तथा तिल-मिश्रित जल से तर्पण करना चाहिये। जो मनुष्‍य श्रद्धा और एकाग्रता के साथ इस विधि से वर्ष के चार महीनों तक पितरों को तिल-मिश्रित जल की अंजलि देता है और वेद-शास्‍त्र के पारंगत विद्वान ब्राह्मण को यथाशक्ति भोजन कराता है, वह सौ यज्ञों का पूरा फल प्राप्‍त कर लेता है।

अब यह दूसरी उस गोपनीय बात को सुनो, जो उत्तम नहीं है अर्थात निन्‍दनीय है। यदि शूद्र किसी द्विज के अग्निहोत्र की अग्नि को एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान को ले जाता है तथा मूर्ख स्त्रियाँ यज्ञ-सम्‍बन्‍धी हविष्‍य को ले जाती हैं- इस कार्य को जो धर्म ही समझता है, वह अधर्म से लिप्‍त होता है। उसके ऊपर अग्नियों का कोप होता है और वह शूद्र योनि में जन्‍म लेता है। उसके ऊपर देवताओं सहित पितर भी विशेष संतुष्‍ट नहीं होते हैं। ऐसे स्‍थलों पर जो प्रायश्चित का विधान है, उसे बताता हूँ, सुनो। उसका भलीभाँति अनुष्‍ठान करके मनुष्‍य सुखी और निश्चिन्‍त हो जाता है।

द्विज को चाहिये कि वह निराहार एवं एकाग्रतिचत होकर तीन दिनों तक गोमूत्र, गोबर, गोदुग्‍ध और गोघृत से अग्नि में आहुति दे। तत्‍पश्चात एक वर्ष पूर्ण होने पर देवता उसकी पूजा ग्रहण करते हैं और पितर भी उसके यहाँ श्राद्धकाल उपस्थित होने पर प्रसन्‍न होते हैं।

इस प्रकार मैंने रहस्य सहित धर्म और अधर्म का वर्णन किया। यह स्वर्ग की कामना वाले मनुष्यों को मृत्यु के पश्चात स्वर्गीय सुख की प्राप्ति कराने वाला है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में देवताओं का रहस्य विषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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