महाभारत विराट पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-14

त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

सुशर्मा का विराट को पकड़कर ले जाना, पाण्डवों के प्रयत्न से उनका छुटकारा, भीम द्वारा सुशर्मा का निग्रह और युधिष्ठिर के अनुग्रह पर उसे छोड़ देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- भारत! उस समय (सूर्यास्त हो चुका था एवं रात्रि आ गयी थी, अतः) सब लोग धूल से जाक आवृत थे ही, अन्धकार से भी आच्छादित हो गये; अतः प्रहार करने वाले सैनिक सेना का व्यूह बनाकर कुछ देर तक युद्ध बंद करके खडत्रे रहे। इतने में ही अन्धकार का निवारण करते हुए चन्द्रदेवता का उदय हुआ। उन्होंने उस रणक्षेत्र में क्षत्रियों को आनन्द देते हुण् उस रात्रि को निर्मल (अन्धकारशून्य) बना दिया। अतः उजाला हो जाने से पुनः घोर युद्ध प्रारम्भ हो गया। उस समय (युद्ध के आवेश में) योद्धा एक दूसरे को देख नहीं रहे थे।

तदनन्तर त्रिगर्तराज सुशर्मा ने अपने छोटे भाई के साथ रथियों का समूह लेका चारों ओर से मत्स्यराज विराट पर धावा बोल दिया। फिर वे क्षत्रियशिरोमणि दोनों बन्धु रथों से कूद पड़े और हाथ में गदा ले क्रोध में भरकर शत्रुसेना के रथों की ओर दौड़े। वे दोनों मतवाले साँड़ों, मदोन्मत्त गजराजों, एक ही हाथी पर आक्रमण करने वाले दो सिंहों तथा युद्ध के लिये उद्यत वृत्रासुर एवं इन्द्र के समान जान पड़ते थे। दोनों के बल और उत्साह समान थे। दोनों ही एक जैसे पराक्रमी और एक से ही अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता थे। युद्ध करने की कला में वे दोनों ही वीर अत्यन्त निपुण थे।। इसी प्रकार उन सबकी वे सेनाएँ भी कुपित हो गदा, तलवार, खड्ग, फरसे और भलीभाँति तेज किये हुए तीखी धार वाले प्रासों (भालों) से प्रहार करतीहुई एक दूसरे पर टूट पड़ी। त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा ने अपनी सेना के द्वारा मत्स्यराज की सेना को मथ डाला और बलपूर्वक उसे परास्त करके महापराक्रमी मत्स्यनरेश विराट पर चढ़ाई कर दी।

उन दोनों भाइयों ने पृथक्-पृथक् विराट के दोनों घोड़ों को मारकर उनके पाश्र्वभाग की रक्षा करने वाले सिपाहियों तथा सारथि को भी मार डाला और उन्हें रथहीन करके जीते जी ही पकड़ लिया। जैसे कामी पुरुष किसी युवती को बलपूर्वक पकड़ ले, वैसे ही सुशर्मा ने राजा विराट को पीड़ित करके पकड़ लिया और उनको शीघ्रगामी वाहनों से युक्त अपने रथ पर चढ़ाकर वह चल दिया। अतिशय बलवान् राजा विराट जब रथ्रहीन होकर पकड़ लिये गये, तब त्रिगर्तों द्वारा अत्यन्त पीडित्रत हुए मत्स्रूदेशीय सैनिक भयभीत होकर भागने लगे।

उनके इस प्रकार अत्यन्त भयभीत होने पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु भीमसेन से कहा- महाबाहो! त्रिगर्तराज सुशर्मा ने मत्स्रूराज को पकड़ लिया है। उन्हे शीघ्र छुड़ाओ; जिससे वे शत्रुओं के वश में न पड़ जायँ। ‘हम सब लोग उनके यहाँ सुखपूर्वक रहे हैं और उन्होंने हमें सब प्रकार की अभीष्ट वस्तुएँ देकर हमारा भली-भाँति सतकार किया है। अतः भीमसेन! तुम्हें उनके घर में रहने के उपकार का बदला चुकाना चाहिये’।

भीमसेन बोले- महाराज! आपकी आ से मैं इन्हें सुशर्मा के हाथों से छुड़ा लूँगा। आज आप शत्रुओं के साथ युद्ध करते समय मेरे महान् पराक्रम को देखें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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