महाभारत सभा पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-15

पंचपंचाशत्तम (55) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना

दुर्योधन बोला- पिता जी! जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, जिसने केवल बहुत से शास्त्रों का श्रवण भर किया है, वह शास्त्र के तात्पर्य को नहीं समझ सकता, ठीक उसी तरह, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती। एक नौका में बँधी हुई दूसरी नौका के समान आप विदुर की बुद्धि के आश्रित है। जानते हुए भी मुझे मोह में क्यों डालते हैं, स्वार्थ साधन के लिये क्या आप में तनिक भी सावधानी नहीं है, अथवा आप मुझसे द्वेष रखते हैं। आप जिनके शासक हैं, वे धृतराष्ट्र नहीं के बराबर हैं (क्योंकि आप उन्हें स्वेच्छा से उन्नति के पथ पर बढ़ने नहीं देते)। आप सदा अपने वर्तमान कर्तव्य को भविष्य पर ही टालते रहते हैं। जिस दल का अगुआ दूसरे की बुद्धि पर चलता है, वह अपने मार्ग में सदा मोहित होता रहता है। फिर उसके पीछे चलने वाले लोग अपने मार्ग का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? राजन्! आपकी बुद्धि परिपक्व है, आप वृद्ध पुरुषों की सेवा करते रहते हैं, आपने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है, तो भी जब हम लोग अपने कार्यों में तत्पर होते हैं, उस समय आप हमें बार-बार मोह में ही डाल देते हैं।

बृहस्पति ने राजव्यवहार को लोकव्यवहार से भिन्न बताया है, अत: राजा को सावधान होकर सदा अपने प्रयोजन का ही चिन्तन करना चाहिये। महाराज! क्षत्रिय की वृत्ति विजय में ही लगी रहती है, वह चाहे धर्म हो या अधर्म। अपनी वृत्ति के विषय में क्या परीक्षा करनी है? भरतकुलभूषण! शत्रु की जगमगाती हुई राजलक्ष्मी को अपने अधिकार में करने की इच्छा वाला भूपाल सम्पूर्ण दिशाओं का उसी प्रकार संचालन करे, जैसे सारथि चाबुक से घोड़ों को हाँक कर अपनी रूचि के अनुसार चलाता है। गुप्त या प्रकट, जो उपाय शत्रु को संकट में डाल दे, वहीं शस्त्रज्ञ पुरुषों का शस्त्र है। केवल काटने वाला शस्त्र ही शस्त्र नहीं है। राजन्! अमुक शत्रु है और अमुक मित्र, इसका कोई लेखा नहीं है और न शत्रु मित्रसूचक कोई अक्षर ही है। जो जिसको संताप देता है, वही उसका शत्रु कहा जाता है। असंतोष ही लक्ष्मी की प्राप्ति का मूल कारण है, अत: मैं असंतोष चाहता हूँ।

राजन्! जो अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न ही सर्वाेत्तम नीति है। ऐश्वर्य अथवा धन में ममता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पहले की उपार्जित धन को दूसरे लोग बलात्कार से छीन लेते हैं। यही राजधर्म माना गया है। इन्द्र ने नमुचि से कभी बैर न करने की प्रतिज्ञा करके उस पर विश्वास जमाया और मौका देखकर उसका सिर काट लिया। तात! शत्रु के प्रति इसी प्रकार का व्यवहार सदा से होता चला आया है। यह इन्द्र को भी मान्य है। जैसे सर्प बिल में रहने वाले चूहों आदि को निगल जाता है, उसी प्रकार यह भूमि विरोध न करने वाले राजा तथा परदेश में न विचरने वाले ब्राह्मण (संन्यासी) को ग्रस लेती है। नरेश्वर! मनुष्य का जन्म से कोई शत्रु नहीं होता, जिसके साथ एक सी जीविका होती है, अर्थात जो लोग एक ही वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं, वे ही (ईर्ष्या के कारण) आपस में एक दूसरे के शत्रु होते हैं, दूसरे नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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