महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 230 श्लोक 1-15

त्रिंशदधिकद्विशततम (230) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्‍ण और उग्रसेन का संवाद – नारदजी की लोकप्रियता के हेतुभूत गुणों का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा– पितामह! इस भूतल पर कौन ऐसा मनुष्‍य है; जो सब लोगों का प्रिय, सम्‍पूर्ण प्राणियों को आनन्‍द प्रदान करने वाला तथा समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्‍न है। भीष्‍म जी ने कहा- भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारे इस प्रश्‍न के उत्तर मैं श्रीकृष्‍ण और उग्रसेन का संवाद सुनाता हूँ, जो नारद जी के विषय में हुआ था। उग्रसेन बोले– जनार्दन! सब लोग जिनके गुणों का कीर्तन करने की इच्‍छा रखते हैं, वे नारद जी मेरी समझ में अवश्‍य उत्‍तम गुणों से सम्‍पन्‍न हैं; अत: मैं उनके गुणों के विषय में पूछता हूँ, तुम मुझे बताओं।

श्रीकृष्‍ण ने कहा– कुकुरकुल के स्‍वामी! नरेश्‍वर! मैं नारद के जिन उत्‍तम गुणों को मानता और जानता हूँ, उन्‍हें संक्षेप से बताना चाहता हूँ। आप मुझसे उनका श्रवण कीजिये। नारद जी में शास्‍त्रज्ञान और चरित्र बल दोनों एक साथ संयुक्‍त हैं। फिर भी उनके मन में अपनी सच्‍चरित्रता के कारण तनिक भी अभिमान नहीं है। वह अभिमान शरीर को संतप्‍त करने वाला है। उसके न होने से ही नारद जी की सर्वत्र पूजा (प्रतिष्‍ठा) होती है। नारद जी में अप्रीति, क्रोध, चपलता और भय– ये दोष नहीं हैं, वे दीर्घसूत्री (किसी काम को विलम्‍ब से करने वाले या आलसी) नहीं हैं तथा धर्म और दया आदि करने में बड़े शूरवीर हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है। निश्‍चय ही नारद उपासना करने के योग्‍य हैं। कामना या लोभ से भी कभी उनके द्वारा अपनी बात पलटी नहीं जाती; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्‍मान होता है। वे अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के तत्‍वज्ञ विद्वान, क्षमाशील, शक्तिमान, जितेन्द्रिय, सरल और सत्‍यवादी हैं। इसीलिये वे सर्वत्र पूजे जाते हैं।

नारद जी तेज, बुद्धि, यश, ज्ञान, विनय, जन्‍म और तपस्‍या द्वारा भी सबसे बढे़-चढे़ हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है। वे सुशील, सुखे से सोने वाले, पवित्र भोजन करने वाले, उत्‍तम आदर के पात्र, पवित्र, उत्‍तम वचन बोलने वाले तथा ईर्ष्‍या से रहित हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है। वे खुले दिल से सबका कल्‍याण करते हैं। उनके मन में लेशमात्र भी पाप नहीं है। दूसरों का अनर्थ देखकर उन्‍हें प्रसन्‍नता नहीं होती; इसीलिये उनका सब जगह सम्‍मान होता है। नारद जी वेदों और उपनिषदों की, श्रुतियों तथा इतिहास पुराण की कथाओं द्वारा प्रस्‍तुत विषयों को समझाने और सिद्ध करने की चेष्‍टा करते हैं।

वे सहनशील तो हैं ही कभी किसी की अवज्ञा नहीं करते हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है। वे सर्वत्र समभाव रखते हैं; इसीलिये उनका न कोई प्रिय है और न किसी तरह अप्रिय ही है। वे मन के अनुकूल बोलते हैं, इसलिये सर्वत्र उनका आदर होता है। वे अनेक शास्‍त्रों के विद्वान हैं और उनका कथा कहने का ढंग भी बड़ा विचित्र है। उनमें पूर्ण पाण्डित्‍य होने के साथ ही लालसा और शठता का भी अभाव है। दीनता, क्रोध और लोभ आदि दोष से वे सर्वथा रहित हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्‍मान होता है। धन अन्‍य कोई प्रयोजन अथवा काम के विषय में नारद जी का पहले कभी किसी के साथ कलह हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें समस्‍त दोषों का अभाव है, इसीलिये उनका सब जगह आदर होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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