एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व:एकाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन ने पूछा- गन्धर्वराज! किस कारण को सामने रखकर राजा कल्माषपाद ने ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठ जी के साथ अपनी पत्नी का नियोग कराया था? तथा उत्तम धर्म के ज्ञाता महात्मा महर्षि वसिष्ठ ने यह परस्त्रीगमन का पाप कैसे किया? सखे! पूर्वकाल में महर्षि वसिष्ठ ने जो यह अधर्म-कार्य किया, उसका क्या कारण है? यह मेरा संशय है, जिसे मैं पूछता हूँ। आप मेरे इन सारे संशयों का निवारण कीजिये। गन्धर्व ने कहा- दुर्धर्ष वीर धनंजय! आप महर्षि वसिष्ठ तथा राजा मित्रसह के विषय में जो कुछ मुझसे पूछ रहे हैं, उनका समाधान सुनिये। भरतश्रेष्ठ! वसिष्ठपुत्र महात्मा शक्ति से राजा कल्माषपाद को जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ, वह सब प्रसंग मैं आपसे कह चुका हूँ। शत्रुओं को संताप देने वाले राजा कल्माषपाद शाप के परवश हो अपनी पत्नी के साथ नगर में बाहर निकल गये। उस समय उनकी आंखें क्रोध से व्याप्त हो रही थी। अपनी स्त्री के साथ निर्जनवन में जाकर वे चारों ओर चक्कर लगाने लगे। वह महान् वन भाँति-भाँति के मृगों से भरा हुआ था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु निवास करते थे। अनेक प्रकार की लताओं तथा गुल्मों से आच्छादित और विविध प्रकार के वृक्षों से आवृत वह (गहन) वन भंयकर शब्दों से गूंजता रहता था। शापग्रस्त राजा कल्माषपाद उसी में भ्रमण करने लगे। एक दिन भूख से व्याकुल हो वे अपने लिये भोजन की तलाश करने लगे। बहुत क्लेश उठाने के बाद उन्होंने देखा कि उन वन के किसी निर्जन प्रदेश में एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी मैथुन के लिये एकत्र हुए हैं। वे दोनों अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाये थे, इतने ही में राक्षसाविष्ट कल्माषपाद को देखकर अत्यन्त भयभीत हो (वहाँ से) भाग चले। उन भागते हुए दम्पति में से ब्राह्मण को राजा ने बलपूर्वक पकड़ लिया। पति को राक्षस के हाथ में पड़ा देख ब्राह्मणी बोली- राजन! मैं आपसे जो बात कहती हूं, उसे सुनिये! उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! आपका जन्म सूर्य-वंश में हुआ है। आप सम्पूर्ण जगत् में विख्यात हैं। आप सदा प्रभाशून्य होकर धर्म में स्थित रहने वाले हैं। गुरुजनों की सेवा में सदा संलग्न रहते हैं। दुर्धर्ष वीर! यद्यपि आप इस समय शाप से ग्रस्त हैं, तो भी आपको पापकर्म नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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