महाभारत वन पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-24

सप्तम (7) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन, दु:शासन, शकुनि और कर्ण की सलाह, पाण्डवों का वध करने के लिए उनका वन में जाने की तैयारी तथा व्यास जी आकर उन्हें रोकना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर आ गये और राजा धृतराष्ट्र ने उन्हें सान्त्वना देकर रख लिया, यह सुनकर दुष्ट बुद्धि वाला धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधन संतप्त हो उठा। उसने शकुनि, कर्ण और दुःशासन को बुलाकर अज्ञान-जनित मोह में मग्न हो इस प्रकार कहा- 'पिेताजी का यह बुद्धिमान मन्त्री विदुर फिर लौट आया। विदुर विद्वान होने के साथ ही पाण्डवों का सुहृद और उन्हीं के हित में संलग्न रहने वाला है। यह पिताजी के विचार को पुनः पाण्डवों को लौटा लाने की ओर जब तक नहीं खींचता, तभी तक मेरे हित साधन के विषय में तुम लोग कोई उत्तम सलाह दो। यदि मैं किसी प्रकार पाण्डवों को यहाँ आया देख लूँगा तो जल का भी परित्याग करके स्वेच्छा से अपने शरीर को सुखा डालूँगा। मैं जहर खा लूँगा, फाँसी लगा लूँगा, अपने आप को ही शस्त्र से मार दूँगा अथवा जलती आग में प्रवेश कर जाऊँगा; परंतु पाण्डवों को फिर बढ़ते या फलते-फूलते नही देख सकूँगा।'

शकुनि बोला- राजन! तुम भी क्या नादान बच्चों के-से विचार रखते हो। पाण्डव प्रतिज्ञा करके वन में गये हैं। वे उस प्रतिज्ञा को तोड़कर लौट आवें, ऐसा कभी नहीं होगा। भरतवंशशिरोमणे! सब पाण्डव सत्य वचन का पालन करने में संलग्न हैं। तात! वे तुम्हारे पिता की बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे अथवा यदि वे तुम्हारे पिता की बात मान भी लेंगे और प्रतिज्ञा तोड़कर इस नगर में आ भी जायेंगे, तो हमारा व्यवहार इस प्रकार का होगा। हम सब लोग राजा की आज्ञा का पालन करते हुए मध्यस्थ हो जायेंगे और छिपे-छिपे पाण्डवों के बहुत-से छिद्र देखते रहेंगे।

दुःशासन ने कहा- महाबुद्धिमान मामाजी! आप जैसा कहते हैं, वही मुझे ठीक जान पड़ता है। आप के मुख से जो विचार प्रकट होता है, वह मुझे सदा अच्छा लगता है।

कर्ण बोला- दुर्योधन! हम सब लोग तुम्हारी अभिलषित कामना की पूर्ति के लिए सचेष्ट हैं। राजन! इस विषय में हम सभी का एक मत दिखायी देता है। धीरबुद्धि पाण्डव निश्चित समय की अवधि को पूर्ण किये बिना यहाँ नहीं आयेंगे और यदि वे मोहवश आ भी जायें, तो तुम पुनः जुए द्वारा उन्हें जीत लेना।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कर्ण के ऐसा कहने पर उस समय राजा दुर्योधान को अधिक प्रसन्नता नहीं हुई। उसने तुरंत ही अपना मुँह फेर लिया। तब उसके आशय को समझकर कर्ण ने रोष से अपनी सुन्दर आँखे फाड़कर दुःशासन, शकुनि और दुर्योधन की ओर देखते हुए स्वयं ही उत्साह में भरकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कहा- ‘भूमि-पालो! इस विषय में मेरा जो मत है, उसे सुन लो। हम सब लोग राजा दुर्योधन के किंकर और भुजाएँ हैं। अतः हम सब मिलकर इनका प्रिय कार्य करेंगे; परंतु हम आलस्य छोड़कर इनके प्रिय साधन में लग नहीं पाते। मेरी यह राय है कि हम कवच पहनकर अपने-अपने रथ पर आरूढ़ हो, अस्त्र-शस्त्र लेकर वनवासी पाण्डवों को मारने के लिए एक साथ उन पर धावा बोलें। जब वे सभी मरकर शान्त हो जायें, तब धृतराष्ट्र के पुत्र तथा हम सब लोग सारे झगड़ों से दूर हो जायेंगे। वे जब तक क्लेश में पड़े हैं, जब तक शोक में डूबे हुए हैं और जब मित्रों एवं सहायकों से वंचित हैं, तभी तक युद्ध में जीते जा सकते हैं, मेरा तो यही मत है।'

कर्ण की यह बात सुनकर सबने बार-बार उसकी सराहना की और कर्ण की बात के उत्तर में सबके मुख से यही निकला- ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।' इस प्रकार आपस में बातचीत करके रोष में और जोश में भरे हुए वे सब पृथक-पृथक रथों पर बैठकर पाण्डवों के वध का निश्चय करके एक साथ नगर से बाहर निकले। उन्हें वन की ओर प्रस्थान करते जान शक्तिशाली महर्षि शुद्धात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास दिव्य दृष्टि से सब कुछ देखकर सहसा वहाँ आये। उन लोकपूजित भगवान व्यास ने उन सबको रोका और सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र के पास शीघ्र आकर कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत अरण्यपर्व में व्‍यासजी के आगमन से सम्‍बन्‍ध रखने वाला सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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