महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 1-21

षट्सप्‍तत्‍यधिकशततम (176) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-45 का हिन्दी अनुवाद

तापसों के आश्रम में राजर्षि होत्रवाहन और अकृतव्रण का आगमन तथा उनसे अम्बा की बातचीत

  • भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर वे सब धर्मात्मा तपस्वी उस कन्या के विषय में‍ चिन्ता करते हुए यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये? उस समय वे उसके लिये कुछ करने को उद्यत थे। (1)
  • कुछ तपस्वी यह कहने लगे कि इस राज्यकन्या को इसके पिता के घर पहुँचा दिया जाय। कुछ तापसों ने मुझे उलाहना देने का निश्‍चय किया। (2)
  • कुछ लोग यह सम्मति प्रकट करने लगे कि चलकर शाल्वराज को बाध्‍य करना चाहिये कि वह इसे स्वीकार कर ले और कुछ लोगों ने यह निश्‍चय प्र‍कट किया था कि ऐसा होना सम्भव नहीं है; क्योंकि उसने इस कन्या को कोरा उत्तर देकर ग्रहण करने से इन्कार कर दिया है। (3)
  • ‘भद्रे! ऐसी स्थिति में मनीषी तापस क्या कर सकते हैं?’ ऐसा कहकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले सभी तापस उस राजकन्या से फिर बोले- (4)
  • ‘भद्रे! घर त्यागकर संन्यासियों जैसे धर्माचरण में संलग्न होने की आवश्‍यकता नहीं है। तुम हमारा हितकर वचन सुनो, तुम्हारा कल्याण हो। यहाँ से पिता के घर को ही चली जाओ। इसके बाद जो आवश्‍यक कार्य होगा, उसे तुम्हारे पिता काशिराज सोचे-समझेंगे। कल्याणि! तुम वहाँ सर्वगुण सम्पन्न होकर सुख से रह सकोगी। (5-6)
  • ‘भद्रे! तुम्हारे लिये पिता का आश्रय लेना जैसा न्याय संगत है, वैसा दूसरा कोई सहारा नहीं है। वरवर्णिनि! नारी के लिये पति अथवा पिता ही गति [1] है। (7)
  • ‘सुख की परिस्थिति में नारी के लिये पति आश्रय होता है और संकटकाल में उसके लिये पिता का आश्रय लेना उत्तम है। विशेषत: तुम सुकुमारी हो, अत: तुम्हारे लिये यह प्रव्रज्या[2] अत्यन्त दु:खसाध्‍य है। (8)
  • ‘भामिनी! एक तो तुम राजकुमारी और दूसरे स्वभावत: सुकुमारी हो, अत: सुन्दरी! यहाँ आश्रम में तुम्हारे रहने से अनेक दोष प्रकट हो सकते हैं। पिता के घर में वे दोष नहीं प्राप्त होंगे।' (9)
  • तदनन्तर दूसरे तापसों ने उस तपस्विनी से कहा- ‘इस निर्जन गहन वन में तुम्हें अकेली देख कितने ही राजा तुमसे प्रणय-प्रार्थना करेंगे, अत: तुम इस प्रकार तपस्या करने का विचार न करो।' (19-11)
  • अम्बा बोली- तापसो! अब मेरे लिये पुन: काशिनगर में पिता के लौट जाना असम्भव हैं; क्योंकि वहाँ मुझे बन्धु-बान्धवों में अपमानित होकर रहना पड़ेगा। (12)
  • तापसो! मैं बाल्यावस्था में पिता के घर रह चुकी हूँ। आपका कल्याण हो। अब मैं वहाँ नहीं जाऊंगी, जहाँ मेरे पिता होंगे। मैं आप तपस्वी जनों द्वारा सुरक्षित होकर यहाँ तपस्या करने की ही इच्छा रखती हूँ। (13)
  • तापसश्रेष्‍ठ महर्षियो! मैं तपस्या इसलिये करना चाहती हूं, जिससे परलोक में भी मुझे इस प्रकार महान संकट एवं दुर्भाग्य का सामना न करना पड़े। अत: मैं तपस्या ही करूंगी। (14)
  • भीष्‍मजी कहते हैं- इस प्रकार वे ब्राह्मण जब यथावत चिन्ता में मग्न हो रहे थे, उसी समय तपस्वी रा‍जर्षि होत्रवाहन उस वन में आ पहुँचे। (15)
  • तब उन सब तापसों ने स्वागत, कुशल-प्रश्‍न, आसन-समर्पण और जल-दान आदि अतिथि-सत्कार के उपचारों-द्वारा राजा होत्रवाहन का समादर किया। (16)
  • जब वे आसन पर बैठकर विश्राम कर चु‍के, उस समय उनके सुनते हुए ही वे वनवासी तपस्वी पुन: उस कन्या के विषय में बातचीत करने लगे। (17)
  • भारत! अम्बा और काशिराज की वह चर्चा सुनकर महातेजस्वी राजर्षि होत्रवाहन का चित्त उद्विग्न हो उठा। (18)
  • पुर्वोक्त रूप से दीनतापूर्वक अपना दु:ख निवेदन करने वाली राजकन्या अम्बा की बातें सुनकर महातपस्वी, महात्मा राजर्षि होत्रवाहन दया से द्रवित हो गये। (19)
  • वे अम्बा के नाना थे। राजन! वे कांपते हुए उठे और उस राजकन्या को गोद में बिठाकर उसे सान्त्वना देने लगे। (20)
  • उन्होंने उस पर सं‍कट आने की सारी बातें आरम्भ से ही पूछी और अम्बा ने भी जो कुछ जैसे-जैसे हुआ था, वह सारा वृत्तान्त उनसे विस्तारपूर्वक बताया। (21)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आश्रय
  2. गृहत्याग

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