महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-4

पन्चदशम (15) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: पन्चदशम अध्यायः श्लोक 1-4 का हिन्दी अनुवाद


रानी सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के घर भेजना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजकुमारी द्रौपदी के द्वारा इस प्रकार ठुकरा दिये जाने पर कीचक असीम एवं भयंकर काम से विवश होकर अपनी बहिन सुदेष्णा से बोला- ‘केकयराजनन्दिनी! जिस उपाय से भी वह गजगामिनी सैरन्ध्री मेरे पास आवे और मुझे अंगीकार कर ले, वह करो। सुदेष्णे! तुम स्वयं ही ऊहापोह करके युक्ति से वह उचित उपाय ढूंढ निकालो, जिससे मुझे (मोह के वश हो) प्राणों का त्याग न करना पड़े’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार बारंबार विलाप करते हुए कीचक की बात सुनकर उस समय राजा विराट की मनस्विनी महारानी सुदेष्णा के मन में उसके प्रति दयाभाव प्रकट हो गया। सुदेष्णा बोली- भाई! यह सुन्दरी सैरन्ध्री मेरी शरण में आयी है। इसे मैंने अभय दे रक्खा है। तुम्हारा कल्याण हो। यह बड़ी सदाचारिणी है। मैं इससे तुम्हारी मनोगत बात नहीं कह सकती। इसे कोई भी दूसरा पुरुष मन से दूषित भाव लेकर नहीं छू सकता। सुनती हूँ, पाँच गन्धर्व इसकी रक्षा करते हैं और इसे सुख पहुँचाते हैं। इसने यह बात मुझसे उसी समय जबकि मेरी इससे पहले पहल भेंट हुई थी, बता दी थी। इसी प्रकार हाथी की सूँड़ के समान जाँघों वाली इस सुन्दरी ने मेरे निकट यह सत्य ही कहा है कि यदि किसी ने मेरा अपमान किया, तो मेरे महात्मा पति कुपित होकर उसके जीवन को ही नष्ट कर देंगे। राजा भी इसे यहाँ देखकर मोहित हो गये थे, तब मैंने इसकी कही हुई सच्ची बातें बताकर उन्हें किसी प्रकार समझा बुझाकर शान्त किया। तबसे वे भी सदा इसे देखकर मन-ही-मन इसका अभिनन्दन करते हैं। जीवन का विनाश करने वाले उन श्रेष्ठ गन्धर्वों के भय से महाराज कभी मन से भी इसका चिन्तन नहीं करते हैं। वे महात्मा गन्धर्व गरुड़ और वायु के समान तेजस्वी हैं। वे कुपित होने पर प्रलयकाल के सूर्यों की भाँति तीनों लोकों को दग्ध कर सकते हैं। सैरन्ध्री ने स्वयं ही मुझसे उनके महान् बल का परिचय दिया है। भ्रातृस्नेह के कारण मैंने तुमसे यह गोपनीय बात भी बता दी है। इसे ध्यान में रखने से तुम अत्यन्त दुःखदायिनी संकटपूर्ण स्थिति में नहीं पड़ोगे। गन्धर्व लोग बलवान् हैं। वे तुम्हारे कुल और सम्पत्ति का भी नाश कर सकते हैं। इसलिये यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं और यदि तुम मेरा भी प्रिय चाहते हो, तो इस सैरन्ध्री में मन न लगाओ। उसका चिन्तन छोड़ दो और उसके पास भी न जाओ।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! सुदेष्णा के ऐसा कहने पर दुष्टात्मा कीचक अपनी बहिन से बोला। कीचक ने कहा- बहिन! मैं सैकड़ों, सहस्रों तथा अयुत गन्धर्वों को अकेला ही मार गिराऊँगा, फिर पाँच की तो बात ही क्या है?

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कीचक के ऐसा कहने पर सुदेष्णा शोक से अत्यन्त व्यथित हो उठी और मन-ही-मन कहने लगी- ‘अहो! यह महान् दुःख, महान् संकट और महान् पाप की बात हो रही है।' इस कर्म के भावी परिणाम पर दृष्टिपात करके वह अत्यन्त दुःख से आतुर हो रोने लगी और मन-ही-मन बोली- ‘मेरा यह भाई तो ऊटपटाँग बातें बोलकर स्वयं ही पाताल अथवा बड़वानल के मुख में गिर रहा है’। (तत्पश्चात् वह कीचक को सुनाकर कहने लगी-) ‘मैं देखती हूँ; मेरे कारण मेरे सभी भाई और सुहृद नष्ट हो जायेंगे। तू ऐसी अनुचित इच्छा को अपने मन में स्थान दे रहा है; मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ? अपनी भलाई किस बात में है, यह तू नहीं समझता है और केवल काम का ही गुलाम हो रहा है। पापी! निश्चय ही तेरी आयु समाप्त हो गयी है, तभी तू इस प्रकार काम से मोहित हो रहा है। नराधम! तू मुझे ऐसे पापपूर्ण कार्य में लगा रहा है, जो कदापि करने योग्य नहीं है। प्राचीन काल के श्रेष्ठ एवं कुशल मनुष्यों ने यह ठीक ही कहा है कि कुल में एक मनुष्य पाप करता है और उसके कारण सभी जाति-भाई मारे जाते हैं। तू यमराज के लोक में गया हुआ ही है, इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं रह गया है। तू अपने साथ इस समस्त निरपराध स्वजनों को भी मरवा डालेगा। मेरे लिये सबसे महान् दुःख की बात यह है कि में सारे परिणामों को समझ बूझकर भी भ्रातृस्नेह के कारण तेरी आज्ञा का पालन करूँगी। तू अपने कुल का संहार करके संतुष्ट हो ले’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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