नवतितम (90) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
इरावान के द्वारा शकुनि के भाइयों का तथा राक्षस अलम्बुष के द्वारा इरावान का वध
नागराज की वह पुत्री संतानहीन थी। उसके मनोनीत पति को[1] गरुड़ ने मार डाला था, जिससे वह अत्यन्तदीन एवं दयनीय हो रही थी। ऐरावतवंशी कौरव्य नाग ने उसे अर्जुन को अर्पित किया और अर्जुन ने काम के अधीन हुई उस नाग कन्या को भार्या रूप में ग्रहण किया था। इस प्रकार अर्जुन पुत्र उत्पन्न हुआ था। वह सदा मातृकुल में रहा। वह नागलोक में ही माता द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया और सब प्रकार से वहीं उसकी रक्षा की गयी थी। उस बालक के किसी दुरात्मा वयोवृद्ध सम्बन्धी ने अर्जुन के प्रति द्वेष होने के कारण इनके उस पुत्र को त्याग दिया था। इरावान भी रूपवान, बलवान, गुणवान और सत्य पराक्रमी था, बड़े होने पर जब उसने सुना कि मेरे पिता अर्जुन इस समय इन्द्रलोक में गये हुए है, तब वह शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचा। उस सत्यपराक्रमी महाबाहु वीर ने अपने पिता के पास पहुँचकर शान्तभाव से उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक हाथ जोड़ महामना अर्जुन के समक्ष अपना परिचय देते हुए बोला- प्रभो! आपका कल्याण हो। मैं आपका ही पुत्र इरावान हूँ। उसकी माता के साथ अर्जुन का जो समागम हुआ था, वह सब उसने निवेदन किया। पाण्डुनन्दन अर्जुन को वह वृत्तान्त यथार्थरूप से स्मरण हो आया। गुणों में अपने ही समान उस पुत्र को हृदय से लगाकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे देवराज इंद्र के भवन में ले गये। नरेश्वर! भरतनन्दन! उन दिनों देवलोक में अर्जुन ने प्रेमपूर्वक अपने महाबाहु पुत्र को अपना सब कार्य बताते हुए कहा- शक्तिशाली पुत्र! युद्ध के अवसर पर तुम हम लोगों को सहायता देना। तब बहुत अच्छा कहकर इरावान चला गया और अब युद्ध के अवसर पर यहाँ आया है। नरेश्वर! इरावान के साथ इच्छानुसार रूप-रंग और वेग वाले बहुत से घोड़े मौजूद थे। वे सब के सब सोने के शिरोभूषण धारण करने वाले तथा मन के समान वेगशाली थे। उनके रंग अनेक प्रकार के थे। राजन्! वे घोड़े महासागर में उड़ने वाले हंसों के समान सहसा उछले और आपके मन के समान वेगशाली अश्वों के समुदाय में पहुँचकर छाती से छाती तथा नासिका से एक दूसरे की नासिका पर चोट करने लगे। वे सहसा वेगपूर्वक टकराकर पृथ्वी पर गिरते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ मूल में 'पतौ पाठ' हैं। व्याकरण के अनुसार 'पति शब्द-का सप्तमी के एक वचन में 'पत्यौ' रूप होता है। अत: जहाँ 'पत्यौ' पद का प्रयोग है, वहाँ मुख्य 'पति' वाचक पति शब्द नहीं है। 'पतिरि वाचकतिति पति:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार आचार क्किंबत 'पति' शब्द का यहाँ प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ -पतिसदृश। तात्पर्य यह है कि जिसके लिये कन्या का वाग्दान किया गया है, वह मनोनीत पति ही विवाह के पहले तक 'पतितुल्य' है। विवाह के बाद साक्षात् 'पति' होता है। इस नाग कन्या के मनोनीत पति को गरुड़ ने मार डाला था, इसलिये 'नष्टे मृते प्रव्रजिते' इस पाराशर वचन के अनुशार उसका अर्जुन के साथ सम्बंध हुआ और धर्मात्मा अर्जुन ने उसे पत्नि रूप से ग्रहण किया।
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