महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-20

सप्तदश (17) अध्याय: द्रोण पर्व ( संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


सुशर्मा आदि संशप्‍तक वीरों की प्रतिज्ञा तथा अर्जुन का युद्ध के लिये उनके निकट जाना
  • संजय कहते हैं– प्रथानाथ! वे दोनों सेनाएँ अपने शिविर में जाकर ठहर गयीं। जो सैनिक जिस विभाग और जिस सैन्‍यदल में नियुक्‍त थे, उसी में यथायोग्‍य स्‍थान पर जाकर सब ओर ठहर गये। (1)
  • सेनाओं को युद्ध से लौटाकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अत्‍यन्‍त दुखी हो दुर्योधन की ओर देखते हुए लज्जित होकर बोले। (2)
  • राजन! मैंने पहले ही कह दिया था कि अर्जुन के रहते हुए सम्‍पूर्ण देवता भी युद्ध में युधिष्ठिर को पकड़ नहीं सकते हैं। (3)
  • तुम सब लोगों के प्रयत्‍न करने पर भी उस युद्धस्‍थल में अर्जुन ने मेरे पूर्वोक्‍त कथन को सत्‍य कर दिखाया है। तुम मेरी बात पर संदेह न करना। वास्‍तव में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन मेरे लिये अजेय हैं। (4)
  • राजन! यदि किसी उपाय से श्‍वेतवाहन अर्जुन दूर हटा दिये जायें तो ये राजा युधिष्ठिर मेरे वश में आ जायँगे। (5)
  • यदि कोई वीर अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारकर दूसरे स्‍थान में खींच ले जाये तो वह कुन्‍तीकुमार उसे परास्‍त किये बिना किसी प्रकार नहीं लौट सकता। (6)
  • नरेश्‍वर! इस सूने अवसर में मैं धृष्टद्युम्न के देखते-देखते पाण्डव सेना को विदीर्ण करके धर्मराज युधिष्ठिर को अवश्‍य पकड़ लूँगा। (7)
  • अर्जुन से अलग रहने पर यदि पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर मुझे निकट आते देख युद्धस्‍थल का परित्‍याग नहीं कर देंगे तो तुम निश्‍चय समझो, वे मेरी पकड़ में आ जायँगे। (8)
  • 'महाराज! यदि अर्जुन के बिना दो घड़ी भी युद्धभूमि में खड़े रहे तो मैं तुम्‍हारे लिये धर्मपुत्र पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को आज उनके गणों सहित अवश्‍य पकड़ लाऊँगा; इसमें संदेह नहीं है और यदि वे संग्राम से भाग जाते हैं तो यह हमारी विजय से भी बढ़कर है'। (9-10)
  • संजय कहते हैं– राजन! द्रोणाचार्य का यह वचन सुनकर उस समय भाइयों सहित त्रिगर्तराज सुशर्मा ने इस प्रकार कहा। (11)
  • महाराज! गाण्‍डीवधारी अर्जुन ने हमेशा हम लोगों का अपमान किया है। यद्यपि हम सदा निरपराध रहे हैं तो भी उनके द्वारा सर्वदा हमारे प्रति अपराध किया गया। (12)
  • हम पृथक-पृथक किये गये उन अपराधों को याद करके क्रोधाग्नि से दग्‍ध होते रहते हैं तथा रात में हमें कभी नींद नहीं आती है। (13)
  • अब हमारे सौभाग्‍य से अर्जुन स्‍वयं ही अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण करके आँखों के सामने आ गये हैं। इस दशा में हम मन-ही-मन जो कुछ करना चाहते थे, वह प्रतिशोधात्‍मक कार्य अवश्‍य करेंगे। (14)
  • उसने आपका तो प्रिय होगा ही, हम लोगों की सुयश की भी वृद्धि होगी। हम इन्‍हें युद्धस्‍थल से बाहर खींच ले जायँगे और मार डालेंगे। (15)
  • 'आज हम आपके सामने यह सत्‍य प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि यह भूमि या तो अर्जुन से सूनी हो जायेगी या त्रिगर्तों में से कोई इस भूतल पर नहीं रह जायगा। मेरा यह कथन कभी मिथ्‍या नहीं होगा'। (16)
  • भरतनन्‍दन! सुशर्मा के ऐसा कहने पर सत्यरथ, सत्यवर्मा, सत्‍यव्रत, सत्येषु तथा सत्यकर्मा नाम वाले उसके पाँच भाइयों ने भी इसी प्रतिज्ञा को दुहराया। उनके साथ दस हजार रथियों की सेना भी थी। महाराज! ये लोग युद्ध के लिये शपथ खाकर लौटे थे। (17-18)
  • महाराज! ऐसी प्रतिज्ञा करके प्रस्‍थलाधिपति पुरुषसिंह त्रिगर्तराज सुशर्मा तीस हजार रथियों सहित मालव, तुण्डिकेर, मावेल्लक, ललित्थ , मद्रकगण तथा दस हजार रथियों से युक्‍त अपने भाइयों के साथ युद्ध के लिये[1] गया। (19-20)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शपथ ग्रहण करने को

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