महाभारत आदि पर्व अध्याय 224 श्लोक 1-15

चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम (224) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतुर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


अग्निदेव का अर्जुन और श्रीकृष्ण को दिव्य धनुष, अक्षय तरकस, दिव्य रथ और चक्र आदि प्रदान करना तथा उन दोनों की सहायता से खाण्डववन को जलाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर धूमरूपी ध्वजा से सुशोभित होने वाले भगवान् हुताशन ने दर्शन की इच्छा से लोकपाल वरुण का चिन्तन किया। अदिति के पुत्र, जल के स्वामी और सदा जल में निवास करने वाले उन वरुणदेव ने, अग्निदेव ने मेरा चिन्तन किया है, यह जानकर तत्काल उन्हें दर्शन दिया। चौथे लोकपाल सनातन देवदेव जलेश्वर वरुण का स्वागत सत्कार करके धूमकेतु अग्नि ने उनसे कहा- ‘वरुणदेव! राजा सोम ने आपको जो दिव्य धनुष और अक्षय तरकस दिये हैं, वे दोनों मुझे शीघ्र दीजिये। साथ ही कपियुक्त ध्वजा से सुशोभित रथ भी प्रदान कीजिये। आज कुन्तीपुत्र अर्जुन गाण्डीव धनुष के द्वारा और भगवान् वासुदेव चक्र के द्वारा मेरा महान् कार्य सिद्ध करेंगे; अतः वह सब आज मुझे दे दीजिये’।

तब वरुण ने अग्निदेव से ‘अभी देता हूँ’ ऐसा कहकर वह धनुषों में रत्न के समान गाण्डीव तथा बाणों से भरे हुए दो अक्षय एवं बड़े तरकस भी दिये। वह धनुष अद्भुत था। उसमें बड़ी शक्ति थी और वह यश एवं कीर्ति को बढ़ाने वाला था। किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वह टूट नहीं सकता था और दूसरे सब शस्त्रों को नष्ट कर डालने की शक्ति उसमें मौजूद थी। उसका आकार सभी आयुधों से बढ़कर था। शत्रुओं की सेना को विदीर्ण करने वाला वह एक ही धनुष दूसरे लाख धनुषों के बराबर था। वह अपने धारण करने वाले के राष्ट्र को बढ़ाने वाला एवं विचित्र था। अनेक प्रकार के रंगों से उसकी शोभा होती थी। वह चिकना और छिद्र से रहित था। देवताओं, दानवों और गन्धर्वों ने अनन्त वर्षों तक उसकी पूजा की थी। इसके सिवा वरुण ने दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ भी प्रस्तुत किया, जिसकी ध्वजा पर श्रेष्ठ कपि विराजमान था। उसमें जुते हुए अश्वों का रंग चाँदी के समान सफेद था। वे सभी घोड़े गन्धर्वदेश में उत्पन्न तथा सोने की मालाओं से विभूषित थे।

उनकी कान्ति सफेद बादलों की सी जान पड़ती थी। वे वेग में मन और वायु की समानता करते थे। वह रथ सम्पूर्ण आवश्यक वस्तुओं से युक्त तथा देवताओं और दानवों के लिये भी अजेय था। उसमें तेजोमयी किरणें छिटकती थीं। उसके चलने पर सब ओर बड़े जोर की आवाज गूँज उठती थी। वह रथ सब प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण बड़ा मनोरम जान पड़ता था। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी प्रजापति विश्वकर्मा ने बड़ी भारी तपस्या के द्वारा उस रथ का निर्माण किया था। उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ का ‘इदमित्थम्’ रूप से वर्ण नहीं हो सकता था। पूर्वकाल में शक्तिशाली सोम (चन्द्रमा) ने उसी रथ पर आरूढ़ हो दानवों पर विजयी पायी थी। वह रथ नूतन मेघ के समान प्रतीत होता था और अपनी दिव्य शोभा से प्रज्वलित हो रहा था। इन्द्रधनुष के समान कान्ति वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन उस श्रेष्ठ रथ के समीप गये। उस रथ का ध्वजदण्ड बड़ा सुन्दर और सुवर्णमय था। उसके ऊपर सिंह और व्याघ्र के समान भयंकर आकृति वाला दिव्य वानर बैठा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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