दशाधिकशततम (110) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! यदुवंशियों में श्रेष्ठ शूरसेन हो गये हैं, जो वसुदेव जी के पिता थे। उन्हें एक कन्या हुई, जिसका नाम पृथा रखा गया। इस भूमण्डल में उसके रुप की तुलना में दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। भारत! सत्यवादी शूरसेन ने अपने फुफेरे भाई संतानहीन कुन्तिभोज से पहले ही यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मैं तुम्हें अपनी पहली संतान भेंट कर दूंगा। उन्हें पहले कन्या ही उत्पन्न हुई। अत: कृपाकांक्षी महात्मा सखा राजा कुन्तिभोज को उनके मित्र शूरसेन ने वह कन्या दे दी। पिता कुन्तिभोज के घर पर पृथा को देवताओं के पूजन और अतिथियों के सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक समय वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले तथा धर्म के विषय में अपने निश्चय को सदा गुप्त रखने वाले एक ब्राह्मण महर्षि आये, जिन्हें लोग दुर्वासा के नाम से जानते हैं। पृथा उनकी सेवा करने लगी। वे बड़े उग्र स्वभाव के थे। उनका हृदय बड़ा कठोर था; फिर भी राजकुमारी पृथा ने सब प्रकार के यत्नों से उन्हें संतुष्ट कर लिया। दुर्वासा जी ने पृथा पर आने वाले भावी संकट का विचार करके उनके धर्म की रक्षा के लिये उसे एक वशीकरण मन्त्र दिया और उसके प्रयोग की विधि भी बता दी। तत्पश्चात वे मुनि उससे बोले- ‘शुभे! तुम इस मन्त्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के अनुग्रह से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा’। ब्रह्मर्षि दुर्वासा के यों कहने पर कुन्ती के मन में बड़ा कौतुहल हुआ। वह यशस्विनी राजकन्या यद्यपि अभी कुमारी थी, तो भी उसने मन्त्र की परीक्षा के लिये सूर्य देव का आवाहन किया। आवाहन करते ही उसने देखा, सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और पालन करने वाले भगवान् भास्कर आ रहे हैं। यह महान् आश्चर्य की बात देखकर निर्दोष अंगों वाली कुन्ती चकित हो उठी। इधर भगवान् सूर्य उसके पास आकर इस प्रकार बोले- ‘श्याम नेत्रों वाली कुन्ती! यह मैं आ गया। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? भद्रे! मैं दुर्वासा ऋषि के दिये हुए मन्त्र से प्रेरित हो तुम्हारे बुलाते ही तुम्हें पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती! तुम मुझे सूर्यदेव समझो।’ कुन्ती ने कहा- शत्रुओं का नाश करने वाले प्रभो! एक ब्राह्मण ने मुझे वरदान के रूप में देवताओं के आवाहन का मन्त्र प्रदान किया है। उसी की परीक्षा के लिये मैंने आपका आवाहन किया था। यद्यपि मुझसे यह अपराध हुआ है, तो भी इसके लिये आप के चरणों में मस्तक रखकर मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि आप क्षमापूर्वक प्रसन्न हो जाइये। स्त्रियों से अपना अपराध हो जाय, तो भी श्रेष्ठ पुरुषों को सदा उनकी रक्षा ही करनी चाहिये। सूर्यदेव बोले- शुभे! मैं यह सब जानता हूँ कि दुर्वासा ने तुम्हें वर दिया है। तुम भय छोड़कर यहाँ मेरे साथ समागम करो। शुभे! मेरा दर्शन अमोघ है और तुमने मेरा आवाहन किया है। भीरु! यदि यह आवाहन व्यर्थ हुआ, तो भी नि:संदेह तुम्हें बड़ा दोष लगेगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! भगवान् सूर्य ने कुन्ती को समझाते हुए इस तरह की बहुत-सी बातें कहीं; किंतु मैं अभी कुमारी कन्या हूं, यह सोचकर सुन्दरी कुन्ती ने उनसे समागम की इच्छा नहीं की। यशस्विनी कुन्ती भाई-बन्धुओं में बदनामी फैलने के डर से भी डरी हुई थी और नारी सुलभ लज्जा से भी वह विवश थी। भरतश्रेष्ठ! उस समय सूर्यदेव ने पुन: उससे कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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