महाभारत वन पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-21

एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के पास दिक्पालों का आगमन एवं उन्हें दिव्यास्त्र-प्रदान तथा इन्द्र का उन्हें स्वर्ग में चलने का आदेश देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन के देखते-देखते पिनाकधारी भगवान् वृषभध्वज अदृश्य हो गये। मानों भुवनभास्कर भगवान् सूर्य अस्त हो गये हों। भारत! तदनन्तर शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन को यह सोचकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज मुझे महादेव जी का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं धन्य हूं! भगवान् का मुझ पर बड़ा अनुग्रह है कि त्रिनेत्रधारी, सर्वपापधारी एवं अभीष्ट वर देने वाले पिनाकपाणि भगवान् शंकर ने मूर्तिमान होकर मुझे दर्शन दिया और अपने करकमलों से मेरे अंगों का स्पर्श किया। आज मैं अपने-आपको परम कृतार्थ मानता हूं, साथ ही यह विश्वास करता हूँ कि महासमर में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करूंगा। अब मेरा अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध हो गया।

इस प्रकार चिन्तन करते हुए अमित तेजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन के पास जल के स्वामी श्रीमान् वरुणदेव जल जन्तुओं से घिरे हुए आ पहुँचे। उनकी अंगकांति वैदूर्य मणि के समान थी और वे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। नागों, नद और नदियों के देवताओं, दैत्यों तथा साध्य देवताओं के साथ जलजन्तुओं के स्वामी जितेन्द्रिय वरुणदेव ने उस स्थान को अपने शुभागमन से सुशोभित किया। तदनन्तर स्वर्ण के समान शरीर वाले भगवान् कुबेर महातेजस्वी विमान द्वारा वहाँ आये। उनके साथ बहुत-से यक्ष भी थे। वे अपने तेज से आकाशमण्डल को प्रकाशित से कर रहे थे। उनका दर्शन अद्भुत एवं अनुपम था। परम सुन्दर श्रीमहान् धनाध्यक्ष कुबेर अर्जुन को देखने के लिये वहाँ पधारे थे। इसी प्रकार समस्त जगत् का अन्त करने वाले श्रीमहान् प्रतापी यमराज ने प्रत्यक्ष रूप में वहाँ दर्शन दिया। उनके साथ मानव-शरीरधारी विश्वभावन पितृगण भी थे। उनके हाथ में दण्ड शोभा पा रहा था। सम्पूर्ण भूतों का विनाश करने वाले अचिन्त्यामा सूर्यपुत्र धर्मराज अपने (तेजस्वी) विमान से तीनों लोकों, गुह्यकों, गन्धर्वों तथा नागों को प्रकाशित कर रह थे। प्रलयकाल उपस्थित होने पर दिखायी देने वाले द्वितीय सूर्य की भाँति उनकी अद्भुत शोभा हो रही थी। उन सब देवताओं ने उस महापर्वत के विचित्र एवं तेजस्वी शिखरों पर पहुँचकर वहाँ तपस्वी अर्जुन को देखा।

तत्पश्चात् दो ही घड़ी के बाद भगवान् इन्द्र इन्द्राणी के साथ ऐरावत की पीठ पर बैठकर वहाँ आये। देवताओं के समुदाय ने उन्हें सब ओर से घेर रक्खा था। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे वे शुभ्र के मेघखण्ड से आच्छादित चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे। बहुत-से तपस्वी-ऋषि तथा गन्धर्वगण उनकी स्तुति करते थे। वे उस पर्वत के शिखर पर आकर ठहर गये। मानो वहाँ सूर्य प्रकट हो रहे हों। तदनन्तर मेघ के समान गम्भीर स्वर वाले परम धर्मज्ञ एवं बुद्धिमान् यमराज ने दक्षिण दिशा में स्थित हो यह शुभ वचन बोले- 'अर्जुन! हम सब लोकपाल यहाँ आये हुए हैं। तुम हमें देखो। हम तुम्हें दिव्य दृष्टि देते हैं। तुम हमारे दर्शन के अधिकारी हो। तुम महामना एवं महाबली पुरातन महर्षि नर हो। तात! ब्रह्मा जी की आज्ञा से तुमने मानव-शरीर ग्रहण किया है। अनघ! वसुओं के अंश में उत्पन्न महापराक्रमी और परम धर्मात्मा पितामह भीष्म को तुम संग्राम में जीत लोगे। भरद्वाजपुत्र द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित क्षत्रिय समुदाय भी, जिसका स्पर्श अग्नि के समान भयंकर है, तुम्हारे द्वारा पराजित होगा। कुरुनन्दन! मानव-शरीर में उत्पन्न हुए महाबली दानव तथा निवातकवच नामक दैत्य भी तुम्हारे हाथ से मारे जायेंगे। धनंजय! सम्पूर्ण जगत् को उष्णता प्रदान करने वाले मेरे पिता भगवान् सूर्यदेव के अंश से उत्पन्न महापराक्रमी कर्ण भी तुम्हारा वध्य होगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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