महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 293 श्लोक 1-13

त्रिनवत्‍यधिकद्विशततम (293) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

पराशरगीता - शूद्र कें लिये सेवावृत्ति की प्रधानता, सत्‍संग की महिमा और चारों वर्णों के धर्मपालन का महत्त्व

पराशर जी कहते हैं- राजन! शूद्र के लिये तीनों वर्णों की सेवा से जीवन-निर्वाह करना ही सबसे उत्‍तम है। शूद्र के लिये निर्दिष्ट सेवा‍वृत्ति का यदि वे प्रेमपूर्वक पालन करें तो वह सदा उन्‍हें धर्मिष्ठ बनाती हैं। यदि शूद्र के पास बाप-दादों का दिया हुआ जीविका का कोई निश्चित साधन नहीं है तो वह दूसरी किसी वृत्ति का अनुसंधान करे। तीनों वर्णों की सेवा को ही जीविका के उपयोग में लाये। धर्म पर दृष्टि रखने वाले सत्‍पुरुषों के संसर्ग में रहना सदा ही श्रेष्ठ है; परंतु किसी भी दशा में कभी दुष्ट पुरुषों का संग अच्‍छा नही है, यह मेरा दृढ़ निश्‍चय है। जैसे सूर्य का सामीप्‍य प्राप्‍त होने से उदयाचल पर्वत की प्रत्‍येक वस्‍तु चमक उठती है, उसी प्रकार साधु पुरुषों के निकट रहने से नीच वर्ण का मनुष्‍य भी सद्गगणों से सुशोभित होने लगता है। श्वेत वस्‍त्र को जैसे रंग में रंगा जाता है, वह वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जैसा संग किया जाता है, वैसा ही रंग अपने ऊपर चढ़ता है। यह बात मुझसे अच्‍छी तरह समझ लो।

इसलिये तुम गुणों में ही अनुराग रखो, दोषों में कभी नहीं, क्‍योंकि यहाँ मनुष्‍यों का जीवन अनित्‍य और चंचल है। जो विद्वान सुख अथवा दुख में रहकर भी सदा शुभकर्म का ही अनुष्ठान करता है, वही यहाँ शास्त्रों को देखता और समझता है। धर्म के विपरीत कर्म यदि लौकिक दृष्टि से बहुत लाभदायक हो तो भी बुद्धिमान पुरुष को उसका सेवन नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि उसे इस जगत में हितकर नहीं बताया जाता है। जो कार्य धर्म के अनुकूल हो, वह अल्‍प लाभदायक होने पर भी नि:शंक होकर कर लेने योग्‍य है; क्‍योंकि वह अन्‍त में अत्‍यन्‍त सुख देने वाला होता है। जो राजा दूसरों की हजारों गौएँ छीनकर दान करता है और प्रजा की रक्षा नहीं करता, वह नाम मात्र का ही दानी और राजा है। वास्‍तव में तो वह चोर और डाकू है। ईश्‍वर ने सबसे पहले लोकपूजित ब्रह्मा को उत्‍पन्‍न किया। ब्रह्मा ने एक पुत्र (पर्जन्‍य) को जन्‍म दिया, जो सम्‍पूर्ण लोकों को धारण करने में तत्‍पर है। उसी की पूजा करके वैश्‍य को चाहिये कि खेती और पशुपालन आदि के द्वारा उसे अत्‍यन्‍त समृद्धिशाली बनाये। राजा को उसकी रक्षा करनी चाहिये और ब्राह्मणों को चाहिये कि वे कुटिलता, शठता और क्रोध को त्‍यागकर हव्‍य-कव्‍य का प्रयोग करते हुए उस अन्‍न-धन का यज्ञ (लोकहित के कार्य) में सदुपयोग करें। शूद्रों को यज्ञभूमि तथा त्रैवर्णिकों के घरों को झाड़-बुहार कर साफ रखना चाहिये। ऐसा करने से धर्म का नाश नहीं होता। धर्म का नाश न होकर उसका पालन होता रहे तो सारी प्रजा सुखी होती है। राजेन्‍द्र! प्रजाओं के सुखी होने पर स्‍वर्ग में देवता भी प्रसन्‍न रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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