षडधिकशततम (106) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! धर्मराज ने ऐसा कौन-सा कर्म किया था, जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ? किस ब्रह्मर्षि के शाप से ये शूद्र योनि में उत्पन्न हुए। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! पूर्वकाल में माण्डव्य नाम से विख्यात एक ब्राह्मण थे, जो धैर्यवान्, सब धर्मों के ज्ञाता, सत्यनिष्ठ एवं तपस्वी थे। वे अपने आश्रम के द्वार पर एक वृक्ष के नीचे दोनों बांहें ऊपर को उठाये हुए मौनव्रत धारण करके खड़े रहकर बड़ी भारी तपस्या करते थे। माण्डव्य जी बहुत बड़े योगी थे। उस कठोर तपस्या में लगे हुए महर्षि के बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन उनके आश्रम पर चोरी का माल लिये हएु बहुत-से लुटेरे आये। जनमेजय! उन चोरों का बहुत-से सैनिक पीछा कर रहे थे। कुरुश्रेष्ठ! वे दस्यु वह चोरी का माल महर्षि के आश्रम में रखकर भय के मारे प्रजा-रक्षक सेना के आने के पहले वहीं कहीं छिप गये। उनके छिप जाने पर राक्षकों की सेना शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँची। राजन्! चोरों का पीछा करने वाले लोगों ने इस प्रकार तपस्या में लगे हुए उन महर्षि को जब वहाँ देखा, तो पूछा कि ‘द्विजश्रेष्ठ: चोर किस रास्ते सं भगे हैं? जिससे वही मार्ग पकड़कर हम तीव्र गति से उनका पीछा करें’। राजन्! उन रक्षकों के इस प्रकार पूछने पर तपस्या के धनी उन महर्षि ने भला-बुरा कुछ भी नहीं कहा। तब उन राज पुरुषों ने उस आश्रम में ही चोरों को खोजना आरम्भ किया और वहीं छिपे हुए चोरों तथा चोरी के माल को भी देख लिया। फिर तो रक्षकों को मुनि के प्रति मन में संदेह उत्पन्न हो गया और वे उन्हें बांधकर राजा के पास ले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने से सब बातें बतायीं और उन चोरों को भी राजा के हवाले कर दिया। राजा ने उन चारों के साथ महर्षि को भी प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी। रक्षकों ने उन महातपस्वी मुनि को नहीं पहचाना और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया। इस प्रकार वे रक्षक माण्डव्य मुनि को शूली पर चढ़ाकर वह सारा धन साथ ले राजा के पास लौट गये। धर्मात्मा महर्षि माण्डव्य दीर्घकाल तक उस शूल के अग्रभाग पर बैठे रहे। वहाँ भोजन न मिलने पर भी उनकी मृत्यु नहीं हुई। वे प्राण धारण किये रहे और स्मरण मात्र करके ऋषियों को अपने पास बुलाने लगे। शूली की नोक पर तपस्या करने वाले उन महात्मा से प्रभावित होकर सभी तपस्वी मुनियों को बड़ा संताप हुआ। वे रात में पक्षियों का रुप धारण करके वहाँ उड़ते हुए आये और अपनी शक्ति के अनुसार स्वरूप को प्रकाशित करते हुए उन विप्रवर माण्डव्य मुनि से पूछने लगे- ‘ब्रह्मन्! हम सुनना चाहते हैं कि आपने कौन-सा पाप किया है, जिससे यहाँ शूल पर बैठने का यह महान् कष्ट आपको प्राप्त हुआ है?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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