एकसप्ततितम (71) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों के समीप आने का समाचार सुनकर शत्रुसूदन भगवान श्रीकृष्ण अपने मित्रों और मन्त्रियों के साथ उनसे मिलने के लिये चले। उन सब लोगों ने पाण्डवों से मिलने के लिये आगे बढ़कर उनकी अगवानी की और सब यथायोग्य एक–दूसरे से मिलें। राजन! धर्मानुसार पाण्डव वृष्णियों से मिलकर सब एक साथ हो हस्तिनापुर में प्रविष्ट हुए। उस विशाल सेना के घोड़ों की टापों और रथ के पहियों की घरघराहट के तुमुल घोष से पृथ्वी और स्वर्ग के बीच का सारा आकाश व्याप्त हो गया था। वे खजाने को आगे करके अपनी राजधानी में घुसे। उस समय मन्त्रियों एवं सुहृदों सहित समस्त पाण्डवों का मन प्रसन्न था। वे यथायोग्य सबसे मिलकर राजा धृतराष्ट्र के पास गये। अपना–अपना नाम बताते हुए उनके चरणों में प्रणाम करने लगे। नृपश्रेष्ठ! भरतभूषण! धृतराष्ट्र से मिलने के बाद वे सुबलपुत्री गान्धारी और कुन्ती से मिले। प्रजानाथ! फिर विदुर का सम्मान करके वैश्यापुत्र युयुत्सु से मिलकर उन सबके द्वारा सम्मानित होते हुए वीर पाण्डव बड़ी शोभा पा रहे थे। भरतनन्दन! तत्पश्चात उन वीरों ने तुम्हारे पिता के जन्म का वह आश्चर्यपूर्ण विचित्र, महान एवं अद्भुत वृत्तान्त सुना। परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण का वह अलौलिक कर्म सुनकर पाण्डवों ने उन पूजनीय देवकीनन्दन श्रीकृष्ण का पूजन किया अर्थात उनकी भूरि–भूरि प्रशंसा की। इसके थोड़े दिनों बाद महातेजस्वी सत्यवतीनन्दन व्यास जी हस्तिनापुर में पधारे। कुरुकुलतिलक समस्त पाण्डवों ने उनका यथोचितपूजन किया। फिर वृष्णि एवं अन्धकवंशी वीरों के साथ वे उनकी सेवा में बैठ गये। वहाँ नाना प्रकार की बातें करके धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने व्यास जी से इस प्रकार कहा- ‘भगवन! आपकी कृपा से जो वह रत्न लाया गया है, उसका अश्वमेध नामक महायज्ञ में मैं उपयोग करना चाहता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! मैं चाहता हूँ कि इसके लिये आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाय, क्योंकि हम सब लोग आप और महात्मा श्रीकृष्ण के अधीन है।’ व्यास जी ने कहा- राजन! मैं तुम्हें यज्ञ के लिये आज्ञा देता हूँ। इसके बाद जो भी आवश्यक कार्य हो, उसे प्रारम्भ करो। विधिपूर्वक दक्षिणा देते हुए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करो। राजेन्द्र! अश्वमेध यज्ञ समस्त पापों का नाश करके यजमान को पवित्र बनाने वाला है। उसका अनुष्ठान करके तुम पाप से मुक्त हो जाओगे, इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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