महाभारत वन पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-22

नवतितम (90) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


धौम्य द्वारा उत्तर दिशा के तीर्थों का वर्णन

धौम्य जी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में जो पुण्यप्रद तीर्थ और देवालय आदि हैं, उनका तुम से वर्णन करता हूँ। प्रभो! तुम सावधान होकर वह सब मेरे मुख से सुनो! वीरवर तीर्थों की कथा का प्रसंग उनके प्रति मंगलमयी श्रद्धा उत्पन्न करता है। तीर्थों की पंक्ति से सुशोभित सरस्वती नदी बड़ी पुण्यदायिनी है। पाण्डुनन्दन! समुद्र में मिलने वाली महावेगशालिनी यमुना भी उत्तम दिशा में ही है। उधर ही अत्यन्त पुण्यमय प्लक्षावतरण नामक मंगलकारक तीर्थ है; जहाँ ब्राह्मणगण यज्ञ करके सरस्वती के जल से अवभृथस्नान करते और अपने स्थानों को जाते हैं। उधर ही अग्निशिर नामक दिव्य, कल्याणमय, पुण्यतीर्थ बताया जाता है। निष्पाप भरतनन्दन! उसी तीर्थ में सहदेव ने शमी का डंडा फेंकवाकर, जितनी दूरी में वह डंडा पड़ा था उतनी दूरी में, मण्डप बनवाकर उसमें यज्ञ किया। युधिष्ठिर! इसी विषय में इन्द्र की गायी हुए एक गाथा लोक में प्रचलित है, जिसे ब्राह्मण गाया करते हैं।

कुरुश्रेष्ठ! सहदेव ने यमुना-तट पर लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा देकर अग्नि की उपासना की थी। वहीं महायशस्वी चक्रवती राजा भरत ने पैंतीस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया। तात! प्राचीन काल में राजा भरत ब्राह्मणों की मनोवांछा को पूर्ण करने वाला राजा सुना गया है। उत्तराखण्ड में ही महर्षि शरभंग का अत्यन्त पुण्यदायक आश्रम विख्यात है। कुन्तीनन्दन! साधु पुरुषों ने सरस्वती नदी की सदा उपासना की है। महाराज! पूर्वकाल में बालखिल्य ऋषियों ने वहाँ यज्ञ किया था। युधिष्ठिर! परम पुण्यमयी दृषद्वती नदी भी उधर ही बतायी गयी है। मनुष्यों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! वहीं न्यग्रोध, पुण्य, पांचाल्य, दाल्भ्यघोष और दाल्भ्य-ये पांच आश्रम हैं तथा अनन्तकीर्ति एवं अमित तेजस्वी महात्मा सुव्रत का पुण्य आश्रम भी उतरांखण्ड में ही बताया जाता है, जो पृथ्वी पर रहकर भी तीनों लोकों मे विख्यात है। नरेश्वर! उत्तराखण्ड में ही विख्यात मुनि नर और नारायण हैं, जो एतावर्ण (श्यामवर्ग-साकार) होते हुए भी वास्तव में अवर्ण (निराकार) ही हैं।।

भरतश्रेष्ठ! ये दोनों मुनि वेदज्ञ, वेद के मर्मज्ञ तथा वेदविद्या के पूर्ण जानकार हैं। इन्होंने पुण्यदायक उत्तम यज्ञों द्वारा शंकर का यजन किया है। पूर्वकाल में इन्द्र, वरुण आदि बहुत-से देवताओं ने मिलकर विशाखयूप नामक स्थान में तप किया था, अतः वह अत्यन्त पुण्यप्रद स्थान है। महाभाग, महायशस्वी और महाप्रभावशाली महर्षि जमदग्नि ने परम सुन्दर तथा पुण्यप्रद पलाशवन में यज्ञ किया था। जिसमें सब श्रेष्ठ नदियां मूर्तिमती हो अपना-अपना जल लेकर उन मुनिश्रेष्ठ के पाय आयीं और उन्हें सब ओर से घेरकर खड़ी हुई थीं।

वीर महाराज! यहाँ महात्मा जमदग्नि की यह यज्ञदीक्षा देखकर स्वयं गन्धर्वराज विश्वावसु ने इस श्लोक का गान किया था। महात्मा जमनग्नि जब यज्ञ द्वारा देवताओं का यजन कर रहे थे, उस समय उनके यज्ञ में सरिताओं ने आकर मधु से ब्राह्मणों को तृप्त किया। युधिष्ठिर! गिरिश्रेष्ठ हिमालय किरातों और किन्नरों का निवास स्थान है। गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और अप्सराएं उसका सदा सेवन करती हैं। गंगा जी अपने वेग से उस शैलराज को फोड़कर जहाँ प्रकट हुई है, वह पुण्यस्थान गंगाद्वार (हरिद्वार) के नाम से विख्यात है। राजन्! उस तीर्थ का ब्रह्मर्षिगण सदा सेवन करते हैं। कुरुनन्दन! पुण्यमय कनखल में पहले सनत्कुमार ने यात्रा की थी। वहीं पुरु नाम से प्रसिद्ध पर्वत है, जहाँ पूर्वकाल में पुरूरवा ने यात्रा की थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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