महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-17

सप्तदश (17) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

अगस्त्य जी का इन्द्र से नहुष के पतन का वृतान्त बताना

शल्य कहते हैं- युधिष्ठिर! जिस समय बुद्धिमान देवराज इन्द्र देवताओं तथा लोकपालों के साथ बैठकर नहुष के वध का उपाय सोच रहे थे, उसी समय वहाँ तपस्वी भगवान अगस्त्य दिखायी दिये। उन्होंने देवेन्द्र की पूजा करके कहा- सौभाग्य की बात है कि आप विश्वरूप के विनाश तथा वृत्रासुर के वध से निरन्तर अभ्युदयशील हो रहे हैं। बलसूदन पुरंदर! यह भी सौभाग्य की ही बात है कि आज नहुष देवताओं के राज्य से भ्रष्ट हो गये। बलसूदन! सोभाग्य से ही मैं आपको शत्रुहीन देख रहा हूँ। इन्द्र बोले- महर्षे! आपका स्वागत है, आपके दर्शन से मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली है, आपकी सेवा में यह पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय तथा गौ समर्पित है। आप मेरी दी हुई ये सब वस्तुएं ग्रहण कीजिये।

शल्य कहते हैं- युधिष्ठिर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जब पूजा ग्रहण करके आसन पर विराजमान हुए, उस समय देवेश्वर इन्द्र ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन विप्रशिरोमणि से पूछा- 'भगवन! द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके शब्दों में यह सुनना चाहता हूँ कि पापपूर्ण विचार रखनेवाला नहुष स्वर्ग से किस प्रकार भृष्ट हुआ है?' अगस्त्य जी ने कहा- इन्द्र बल के घमन्ड में भरा हुआ दुराचारी और दुरात्मा राजा नहुष जिस प्रकार स्वर्ग से भ्रष्ट हुआ है, वह प्रिय समाचार सुनो। महाभाग देवर्षि तथा निर्मल अन्त:करण वाले बृह्मर्षि पापाचारी नहुष का बोझ ढोते-ढोते परिश्रम से पीड़ित हो गये थे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ इंद्र! उस समय उन महर्षियों ने नहुष से एक संदेह पूछा- 'देवेन्द्र! गौओं के प्रोक्षण के विषय में जो ये मन्त्र वेद में बताये गये हैं, इन्हें आप प्रामाणिक मानते हैं या नहीं।' नहुष की बुद्धि तमोमय अज्ञान के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। उसने महर्षियों को उत्तर देते हुए कहा- 'मैं इन वेद मन्त्रों को प्रमाण नहीं मानता।' ऋषिगण बोले- तुम अर्धम में प्रवृत्त हो रहे हो, इस लिये धर्म का तत्त्व नहीं समझते हो। पूर्व काल में महर्षियों ने इन सब मन्त्रों को हमारे लिये प्रमाण भूत बताया है।

अगस्त्यजी कहते हैं- इन्द्र! तब नहुष मुनियों के साथ विवाद करने लगा और अर्धम से पीड़ित होकर उस पापी ने मेरे मस्तक पर पैर से प्रहार किया। इससे उसका सारा तेज नष्ट हो गया। वह राजा श्रीहीन हो गया। तब तमोगुण में डूबकर अत्यन्त पीड़ित हुए नहुष से मैंने इस प्रकार कहा- 'राजन! पूर्वकाल में ब्रहर्षियों ने जिस का अनुष्ठान किया है- जिसे प्रमाणभूत माना है, उस निर्दोष वेद मन्त्र को जो तुम सदोष बताते हो- उसे अप्रामाणिक मानते हो, इसके सिवा तुमने जो सिर पर लात मारी है तथा पापात्मा मूढ़! जो तुम ब्रह्मजी के समान दुधर्ष तेजस्वी ऋषियों को वाहन बनाकर उनसे अपनी पालकी ढुलवा रहे हो, इससे तेजोहीन हो गये हो। तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया है। अतः स्वर्ग से भ्रष्ट होकर तुम पृथ्वी पर गिरो। ‘वहाँ दस हजार वर्षों तक तुम महान सर्प का रूप धारण करके विचरोगे और उतने वर्ष पूर्ण हो जाने पर पुनः स्वर्ग लोक प्राप्त कर लोगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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