षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! एक सुरंग खोदने वाला मनुष्य विदुर जी का हितैषी एवं विश्वासपात्र था। वह अपने काम में बड़ा चतुर था एक दिन वह एकान्त में पाण्डवों से मिला और इस प्रकार कहने लगा। ‘मुझे विदुर जी ने भेजा है। मैं सुरंग खोदने के काम में बड़ा निपुण हूँ। मुझे आप पाण्डवों का प्रिय कार्य करना है, अत: आप लोग बतायें, मैं आपकी क्या सेवा करूं? विदुर ने गुप्तरूप से मुझसे यह कहा है कि तुम वारणावत में जाकर विश्वासपूर्वक पाण्डवों का हित सम्पादन करो। अत: आप आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूं? इसी कृष्ण पक्ष की चर्तुदशी की रात को पुरोचन आपके घर के दरवाजे पर आग लगा देगा। दुर्बुद्धि दुर्योधन की यह चेष्टा है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माता के साथ जला दिये जायें। पाण्डुनन्दन! विदुर जी ने मलेच्छ भाषा में आपको कुछ संकेत किया था और आपने ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकर किया था। यह बात मैं विश्वास दिलाने के लिये कहता हूं’। तब सत्यवादी कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने उससे कहा- ‘सौम्य! मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुम विदुर जी के हितैषी, ईमानदार और विश्वसनीय, प्रिय तथा उनके प्रति सदा अविचल भक्ति रखने वाले हो। हमारा कोई ऐसा प्रयोजन नहीं है, जो परमज्ञानी विदुर जी को ज्ञात न हो। तुम विदुर जी के लिये जैसे आदरणीय और विश्वसनीय हो, वैसे ही हमारे लिये भी हो। तुमसे हमारा कोई अन्तर नहीं है। हम लोग जिस प्रकार विदुर जी के पालनीय हैं, वैसे ही तुम्हारे भी हैं। जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे तुम भी करो। यह घर आग भड़काने वाले पदार्थों से बना है। हमारा विश्वास है कि दुर्योधन के आदेश से पुरोचन ने हमारे लिये ही इसे बनवाया है। पापी दुर्योधन के पास खजाना है और उसके बहुत-से सहायक भी हैं; इसलिये वह दुर्बुद्धि पापात्मा सदा हमें सताया करता है। तुम यत्न करके हम लोगों को इस आग से बचा लो; अन्यथा हम लोगों के यहाँ दग्ध हो जाने पर दुर्योधन का मनोरथ सफल हो जायगा। यह उस दुरात्मा का अस्त्र-शस्त्रों से भरा हुआ आयुधागार है। इसी के सहारे इस महान् गृह का निर्माण किया गया है। इसमें चहारदिवारी के निकटतम कहीं कोई बाहर निकलने का मार्ग नहीं है। अवश्य ही दुर्योधन का यह अशुभ कर्म, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है, पहले ही विदुर जी को मालूम हो गया था। इसीलिये उन्होंने हमें इसकी जानकारी करा दी। विदुर जी की दृष्टि में जो बहुत पहले आ चुकी थी, वही यह विपत्ति आज हम लोगों पर आयी-की-आयी है। तुम हमें इस संकट से इस तरह मुक्त करो, जिससे पुरोचन को हमारे विषय में कुछ भी पता न चले’। तब उस सुरंग खोदने वाले ने ‘बहुत अच्छा’ ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा की और कार्य सिद्धि के प्रयत्न में लग गया। खाई की सफाई करने के व्याज से उसने एक बहुत बड़ी सुरंग तैयार कर दी। भारत! उसने उस भवन के ठीक बीच से वह महान् सुरंग निकाली। उसके मुहाने पर किवाड़ लगे थे वह भूमि के समान सतह में ही बनी थी; अत: किसी को ज्ञात नहीं हो पाती थी। पुरोचन के भय से उस सुरंग खोदने वाले ने उसके मुख को बंद कर दिया था। दुष्ट बुद्धि पुरोचन सर्वदा मकान के द्वार पर ही निवास करता था और पाण्डवगण भी रात्रि के समय शस्त्र संभाले सावधानी के साथ उस द्वार पर ही रहा करते थे। (इसलिये पुरोचन को आग लगाने का अवसर नहीं मिलता था।) वे दिन में हिंस्र पशुओं के मारने के बहाने एक-वन से दूसरे वन में विचरते रहते थे। पाण्डव भीतर से तो विश्वास न करने के कारण सदा चौकन्ने रहते थे परंतु ऊपर से पुरोचन को ठगने के लिये विश्वस्त की भाँति व्यवहार करते थे। राजन्! वे संतुष्ट न होते हुए भी संतुष्ट की भाँति निवास करते और अत्यन्त विस्मय युक्त रहते थे। विदुर के मन्त्री और खोदाई के काम में श्रेष्ठ उस खनक को छोड़कर नगर के निवासी भी पाण्डवों के विषय में कुछ नहीं जान पाते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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