पंचसप्ततितम (75) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से किसी व्रत को आरम्भ करके उसे अखण्ड रूप से निभा देते हैं, उन्हें सनातन लोकों की प्राप्ति होती है। राजन! संसार में नियमों के पालन का फल तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुमने भी यह नियमों और यज्ञों का ही फल प्राप्त किया है। वेदों के स्वाध्याय का फल भी इहलोक और परलोक में भी देखा जाता है। स्वाध्यायशील द्विज इहलोक और ब्रह्मलोक में भी सदा आनन्द भोगता है। राजन! अब तुम मुझसे विस्तारपूर्वक दम (इन्द्रियसंयम) के फल का वर्णन सुनो। जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सुखी और सर्वत्र संतुष्ट रहते हैं। वे जहाँ चाहते हैं, वहीं चले जाते हैं और जिस वस्तु की इच्छा करते हैं, वही उन्हें प्राप्त हो जाती है। वे सम्पूर्ण शत्रुओं का अन्त कर देेते हैं। इसमें संशय नहीं है। पांडुनन्दन! जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सम्पूर्ण मनचाही वस्तुऐं प्राप्त कर लेते हैं। वे अपनी तपस्या, पराक्रम, दान तथा नाना प्रकार के यज्ञों से स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं। इन्द्रियों का दमन करने वाले पुरुष क्षमाशील होते हैं। दान से दम का स्थान ऊँचा होता है। दानी पुरुष ब्राह्मण को कुछ दान करते समय कभी क्रोध भी कर सकता है; परंतु दमनशील या जितेन्द्रिय पुरुष कभी क्रोध नहीं करता; इसलिये दम (इन्द्रियसंयम) दान से श्रेष्ठ है। जो दाता बिना क्रोध किये दान करता है, उसे सनातन (नित्य) लोक प्राप्त होते हैं। दान करते समय यदि क्रोध आ जाये तो वह दान के फल को नष्ट कर देता है; इसलिये उस क्रोध को दबाने वाला जो दम नामक गुण है, वह दान से श्रेष्ठ माना गया है। महाराज! नरेश्वर! सम्पूर्ण लोकों में निवास करने वाले ऋषियों के स्वर्ग में सहस्रों अदृश्य स्थान हैं, जिनमें दम के पालन द्वारा महान लोकों की इच्छा रखने वाले महर्षि और देवता इस लोक से जाते हैं; अतः ‘दम’ दान से श्रेष्ठ है। नरेन्द्र! शिष्यों को वेद पढ़ाने वाला अध्यापक क्लेश सहन करने के कारण अक्षय फल का भागी होता है। अग्नि में विधिपूर्वक हवन करके ब्राह्मण ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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