त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
मुनि बोले–महाबाहो! यह कथा धर्म के निर्णय से युक्त तथा अर्थ और काम से सम्पन्न है। राजन्! तुम सावधान होकर मेरे मुख से इस कथा को सुनो। एक समय की बात है किसी महान वन में कोई भयंकर बहेलिया चारों ओर विचर रहा था। वह बड़े खोटे आचार-विचार का था। पृथ्वी पर वह काल के समान जान पड़ता था। उसका सारा शरीर ‘काकोल’ जाति के कौओं के समान काला था। ऑखें लाल-लाल थीं। वह देखने पर काल-सा प्रतीत होता था। बड़ी-बड़ी पिंडलियॉ, छोटे-छोटे पैर, विशाल मुख और लंबी-सी ठोढ़ी–यही उसकी हुलिया थी। उसके न कोई सुहृद, न सम्बन्धी और न भाई-बन्धु ही थे। उसके भयानक क्रूर-कर्म के कारण सबने उसे त्याग दिया था। वास्तव में जो पापाचारी हो, उसे विज्ञ पुरुषों को दूर से ही त्याग देना चाहिये। जो अपने आपको धोखा देता है, वह दूसरे का हितैषी कैसे हो सकता है? जो मनुष्य क्रूर, दुरात्मा तथा दूसरे प्राणियों के प्राणों का अपहरण करने वाले होते है, उन्हें सर्पों के समान सभी जीवों की ओर से उद्वेग प्राप्त होता है। नरेश्वर! वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और बहुत-से पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था। यही उसका नित्य का काम था। इसी वृति से रहते हुए उस दुरात्मा को वहाँ दीर्घकाल व्यतीत हो गया, किंतु उसे अपने इस अधर्म का बोध नहीं हुआ। सदा अपनी स्त्री के साथ विहार करता हुआ वह बहेलिया दैवयोग से ऐसा मूढ़ हो गया था कि उसे दूसरी कोई वृति अच्छी ही नहीं लगती थी। तदनन्तर एक दिन वह वन में ही घूम रहा था कि चारों ओर से बड़े जोर की आंधी उठी। वायु का प्रचण्ड वेग वहाँ के समस्त वृक्षों को धराशायी करता हुआ-सा जान पडा़। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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