महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-24

पन्चत्रिंश (35) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: पन्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


बलदेवजी की तीर्थ यात्रा तथा प्रभास-क्षेत्र के प्रभाव का वर्णन के प्रसंग में चन्द्रमा के शापमोचन की कथा


जनमेजय ने कहा- ब्रह्मन! जब महाभारत युद्ध आरम्भ होने का समय निकट आ गया, उस समय युद्ध प्रारम्भ होने से पहले ही भगवान बलराम श्रीकृष्ण की सम्मति ले, अन्य वृष्णि वंशियों के साथ तीर्थ यात्रा के लिये चले गये और जाते समय यह कह गये कि ‘केशव! मैं न तो धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की सहायता करुंगा और न पाण्डवों की ही’। विप्रवर! उन दिनों ऐसी बात कहकर जब क्षत्रिय संहारक बलराम जी चले गये, तब उनका पुनः आगमन कैसे हुआ, यह बताने की कृपा करें। साधुशिरोमणे! आप कथा कहने में कुशल हैं; अतः मुझे विस्तारपूर्वक बताइये कि बलराम जी कैसे वहाँ उपस्थित हुए और किस प्रकार उन्होंने युद्ध देखा?

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! जिन दिनों महामनस्वी पाण्डव उपप्लव्य नामक स्थान में छावनी डाल कर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है। महाबाहो! पाण्डवों ने समस्त प्राणियों के हित के लिये सन्धि के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। भगवान ने हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से भेंट की और उनसे सबके लिये विशेष हितकारक एवं यथार्थ बातें कहीं। नरेश्वर! किंतु राजा धृतराष्ट्र ने भगवान का कहना नहीं माना। यह सब बात पहले यथार्थरूप से बतायी गयी हैं। महाबाहु पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण वहाँ संधि कराने में सफलता न मिलने पर पुनः उपप्लव्य में ही लौट आये। नरव्याघ्र! कार्य न होने पर धृतराष्ट्र से विदा ले वहाँ से लौटे हुए श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा- ‘कौरव काल के अधीन हो रहे हैं, इसलिये वे मेरा कहना नहीं मानते हैं। पाण्डवों! अब तुम लोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो'। इसके बाद जब सेना का बटवारा होने लगा, तब बलवानों में श्रेष्ठ महामना बलदेव जी ने अपने भाई श्रीकृष्ण से कहा- ‘महाबाहु मधुसूदन! उन कौरवों की भी सहायता करना।’ परंतु श्रीकृष्ण ने उस समय उनकी यह बात नहीं मानी। इससे मन ही मन कुपित और खिन्न होकर महायशस्वी यदुनन्दन हलधर सरस्वती के तट पर तीर्थ यात्रा के लिये चल दिये। इसके बाद शत्रुओं का दमन करने वाले कृतवर्मा ने सम्पूर्ण यादवों के साथ अनुराधा नक्षत्र में दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया। सात्यकि सहित भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का पक्ष लिया।

रोहिणीनन्दन शूरवीर बलराम जी के चले जाने पर मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को आगे करके पुष्यनक्षत्र में कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। यात्रा करते हुए बलराम जी ने स्वयं मार्ग में ही रहकर अपने सेवकों से कहा- ‘तुम लोग शीघ्र ही द्वारका जाकर वहाँ से तीर्थ यात्रा में काम आने वाली सब सामग्री, समस्त आवश्यक उपकरण, अग्निहोत्र की अग्नि तथा पुरोहितों को ले आओ। सोना, चांदी, दूध देने वाली गायें, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, गदहा और ऊंट आदि वाहन एवं तीर्थोपयोगी सब सामान शीघ्र ले आओ। शीघ्रगामी सेवकों! तुम सरस्वती के स्त्रोत की ओ चलो और सैकड़ों श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा ऋत्विजों को ले आओ’। राजन! महाबली बलदेव जी ने सेवकों को ऐसी आज्ञा देकर उस समय कुरुक्षेत्र में ही तीर्थ यात्रा आरम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ! वे सरस्वती के स्त्रोत की ओर चलकर उसके दोनों तटों पर गये। उनके साथ ऋत्विज, सुहृद, अन्यान्य श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी, घोड़े और सेवक भी थे। बैल, गदहा और ऊंटों से जुते हुए बहुसंख्यक रथों से बलराम जी घिरे हुए थे। राजन! उस समय उन्होंने देश-देश में थके-मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये नाना प्रकार की देने योग्य वस्तुएं प्रचुर मात्रा में तैयार करा रखी थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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