महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-18

सप्‍तदशाधिकशततम (117) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


कुते का शरभ की योनि में जाकर महर्षि के शाप से पुन: कुता हो जाना


भीष्‍म जी ने कहा- राजन! वह बाघ अपने मारे हुए मृगों के मांस खाकर तृप्‍त हो जाता हो महर्षि की कुटी के पास ही सो रहा था। इतने में ही वहाँ उंचे उठे हुए मेघ के समान काला एक मदोन्‍मत हाथी आ पहुँचा। उसके गण्‍डस्‍थल से मद की धारा चू रही थी। उसका कुम्‍भस्‍थल बहुत विस्‍तृत था। उसके उपर कमल का चिन्‍ह बना हुआ था, उसके दांत बड़े सुन्‍दर थे। वह विशालकाय ऊँचा हाथी मेघ के समान गम्‍भीर गर्जना करता था। उस बलाभिमानी मदोन्‍मत गजराज को आते देख वह बाघ भयभीत हो पुन: ऋषि की शरण में गया। तब उन मुनिश्रेष्‍ठ ने उस बाघ को हाथी बना दिया। उस महामेघ के समान हाथी को देखकर वह जंगली हाथी भयभीत होकर भाग गया। तदनन्‍तर वह हाथी कमलों के पराग से विभूषित और आनन्दित हो कमलसमूहों तथा शल्‍ल की लता की झाड़ियों में विचरने लगा। कभी-कभी वह हाथी आश्रमवासी ऋषि के सामने भी घूमा करता था। इस तरह उसका कितनी ही रातों का समय व्‍यतीत हो गया।

तदनन्‍तर उस प्रदेश में एक केसरी सिंह आया, जो अपनी केसर के कारण कुछ लाल-सा जान पड़ता था। पर्वत की कन्‍दरा में पैदा हुआ वह भयानक सिंह गजवंश का विनाश करने वाला काल था। उस सिंह को आते देख वह हाथी उसके भय से पीड़ित और आतुर हो थर-थर कांपने लगा और ऋषि की शरण में गया। तब मुनि ने उस गजराज को सिंह बना दिया। अब वह समान जाति के सम्‍बन्‍ध से जंगली सिंह को कुछ भी नहीं गिनता था। उसे देखकर जंगली सिंह स्‍वंय ही डर गया। वह सिंह बना हुआ कुत्ता महावन में उसी आश्रम में रहने लगा। उसके भय से जंगल के दूसरे पशु डर गये और अपनी जान बचाने की इच्‍छा से तपोवन के समीप कभी नहीं दिखायी दिये।

तदनन्‍तर कालयोग से वहाँ एक बलवान् वनवासी समस्‍त प्राणियों का हिंसक शरभ आ पहुँचा, जिसके आठ पैर और उपर की ओर नेत्र थे। वह रक्‍त पीने वाला जानवर नाना प्रकार के वन-जन्‍तुओं के मन में भय उत्‍पन्‍न कर रहा था। वह उस सिंह को मारने के लिये मुनि के आश्रम पर आया। शरभ को आते देख सिंह अत्‍यन्‍त भय से व्‍याकुल हो कांपता हुआ हाथ जोड़कर मुनि की शरण में आया। शत्रुदमन युधिष्ठिर! तब मुनि ने उसे बलोन्‍मत शरभ बना दिया। जंगली शरभ उस मुनिनिर्मित अत्‍यन्‍त भयंकर एवं बलवान् शरभ को सामने देखकर भयभीत हो तुरंत ही उस वन में भाग गया। इस प्रकार मुनि ने उस कुते को उस समय शरभ के स्‍थान में प्रतिष्ठित कर दिया। वह शरभ प्रतिदिन मुनि के पास सुख से रहने लगा।

राजन्! उस शरभ से भयभीत हो जंगल के सभी पशु अपनी जान बचाने के लिये डर के मारे सम्‍पूर्ण दिशाओं में भाग गये। शरभ भी अत्‍यन्‍त प्रसन्‍नहो सदा प्राणियों के वध में तत्‍पर रहता था। वह मांसभोजी जीव फल-मूल खाने की कभी इच्‍छा नहीं करता था। तदनन्‍तर एक दिन रक्‍त की प्रबल प्‍यास से पिड़ित वह शरभ, जो कुते की जाति से पैदा होने के कारण कृतघ्‍न बन गया था, मुनि को ही मार डालने की इच्‍छा करने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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