महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-20

षोडश (16) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का राजा को भुक्त दुःखों की स्मृति कराते हुए मोह छोड़कर मन को काबू में करके राज्यशासन और यज्ञ के लिये प्रेरित करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अर्जुन की बात सुनकर अत्यन्त अमर्षशील तेजस्वी भीमसेन धैर्य धारण करके अपने बड़े भाई से कहा- 'राजन्! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है। हम लोग आपसे सदा ही सदाचार की शिक्षा पाते हैं। हम आपको शिक्षा दे नहीं सकते। जनेश्वर! मैंने कई बार मन में निश्चय किया कि- अब नहीं बोलूंगा, नहीं बोलूगा; परंतु अधिक दुःख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आप मेरी बात सुनें। आपके इस मोह से सब कुछ संशय में पड़ गया है। हमारे तन-मन में व्याकुलता और निर्बलता प्राप्त हो गयी है। आपको सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता और इस जगत् के राजा होकर क्यों कायर मनुष्य के समान दीनतावश मोह में पड़े हुए हैं। आपको संसार की गति और अगति दोनों का ज्ञान है। प्रभो! आपसे न तो वर्तमान छिपा है और न भविष्य ही। महाराज! जनेश्वर! ऐसी स्थिति में आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे ही यहाँ बता रहा हूँ। आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। मनुष्य को दो प्रकार की व्याधियां होती हैं- एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनों की उत्पत्ति एक दूसरे के आश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना सम्भव नहीं है। कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि होती है, इसमें संशय नहीं है। इसी प्रकार कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि का होना भी निश्चित ही है। जो मनुष्य बीते हुए मानसिक अथवा शारीरिक दुःख के लिये बारंबार शोक करता है, वह एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त होता है। उसे दो-दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं। सर्दी, गर्मी और वायु (कफ, पित्त और वात) ये तीन शारीरिक गुण हैं। इन गुणों का साम्यावस्था में रहना ही स्वस्थता का लक्षण बताया गया है।

उन तीनों में से यदि किसी एक की वृद्धि हो जाय तो उसकी चिकित्सा बतायी जाती है। उष्ण द्रव्य से और शीत पदार्थ से गर्मी का निवारण होता है। सत्त्व, रज और तम- ये तीन मानसिक गुण हैं। इन तीनों गुणों का सम अवस्था में रहना मानसिक स्वास्थ्य का लक्ष बताया गया है। इनमें से किसी एक की वृद्धि होने पर उपचार बताया जाता है। हर्ष (सुख) के द्वारा शोक (रजोगुण) का निवारण होता है और शोक के द्वारा हर्ष का। कोई सुख में रहकर दुःख की बातें याद करना चाहता है और कोई दुःख में रहकर सुख का स्मरण करना चाहता है। कुरूनन्दन! परंतु आप न दुःखी होकर दुःख की, न सुखी होकर सुख की, न दुःख की अवस्था में सुख की और न सुख की अवस्था में दुःख की ही बातें याद करना चाहते है; क्योंकि भाग्य बड़ा प्रबल होता है अथवा महाराज! आपका स्वभाव ही ऐसा है, जिससे आप क्लेश उठाकर रहते हैं। कौरव-सभा में पाण्डुपुत्रों के देखते-देखते जो एक वस्त्रधारिणी रजस्वला कृष्णा को लाया गया था, उसे आपने अपनी आँखों देखा था। क्या आपको उस घटना का स्मरण नहीं होना चाहिये? आप नगर से निकाले गये, आपको मृगछाला पहनाकर वनवास दे दिया गया और बड़े-बड़े जंगलों में आपको रहना पड़ा। क्या इन सब बातों का आप याद नहीं कर सकते? जटासुर से जो कष्ट प्राप्त हुआ, चित्रसेन के साथ जो युद्ध करना पड़ा और सिंधुराज जयद्रथ के कारण जो अपमानजनक दुःख भोगना पड़ा- ये सारी बातें आप कैसे भूल गये?’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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