महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 221 श्लोक 1-17

विंशत्‍यधिकद्विशततम (221) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

व्रत, तप, उपवास, ब्रह्माचर्य तथा अतिथि सेवा आदि का विवेचन तथा यज्ञशिष्ट अन्‍न का भोजन करने वाले को परम उत्‍तम गति की प्राप्ति का कथन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! व्रतयुक्‍त द्विजगण वेदोक्‍त सकाम कर्मों के फल की इच्‍छा से हविष्‍यान्‍न का भोजन करते हैं, उनका यह कार्य उचित है या नहीं?

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो लोग अवैदिक व्रत का आश्रय ले हविष्‍यान्‍न का भोजन करते हैं, वे स्‍वेच्‍छाचारी हैं और जो वेदोक्‍त व्रतों में प्रवृत्‍त हो सकाम यज्ञ करते और उसमें खाते हैं, वे भी उस व्रत के फलों के प्रति लोलुप कहे जाते हैं (अत: उन्‍हें भी बारंबार इस संसार में आना पड़ता है।)

युधिष्ठिर ने पूछा- महाराज! संसार के साधारण लोग जो उपवास को ही तप कहते हैं, क्‍या वास्‍तव में यही तप है या दूसरा। यदि दूसरा है तो उस तप का क्‍या स्‍वरूप है?

भीष्‍म जी ने कहा- राजन! साधारण जन जो महीने पंद्रह दिन उपवास करके उसे तप मानते हैं, उनका वह कार्य धर्म के साधनभूत शरीर का शोषण करने वाला है; अत: श्रेष्ठ पुरुषों के मत में वह तप नहीं है। उनके मत में तो त्‍याग और विनय ही उत्‍तम तप है। इनका पालन करने वाला मनुष्‍य नित्‍य उपवासी और सदा ब्रह्मचारी है। भरतनन्‍दन! त्‍यागी और विनयी ब्राह्मण सदा मुनि और सर्वदा देवता समझा जाता है। वह कुटुम्‍ब के साथ रहकर भी निरन्‍तर धर्मपालन की इच्‍छा रखे और निद्रा तथा आलस्‍य को कभी पास न आने दे। मांस कभी न खाय, सदा पवित्र रहे, वैश्‍वदेव आदि यज्ञ से बचे हुए अमृतमय अन्‍न का भोजन तथा देवता और अतिथियों की पूजा करे। उसे सदा यज्ञशिष्ट अन्‍न का भोक्‍ता, अतिथि सेवा का व्रती, श्रद्धालु तथा देवता और ब्राह्मणों का पूजक होना चाहिये।

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो प्रतिदिन प्रात:काल के सिवा फिर शाम को ही भोजन करे और बीच में कुछ न खाय, वह नित्‍य उपवास करने वाला होता है। जो द्विज केवल ऋतु स्‍नान के समय ही पत्‍नी के साथ समागम करता, सदा सत्‍य बोलता और नित्‍य ज्ञान में स्थित रहता है, वह सदा ब्रह्मचारी ही होता है। तथा जो कभी मांस न खाय, वह अमांसाहारी होता है। जो नित्‍य दान करने वाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिन में कभी नहीं सोता, वह सदा जागने वाला समझा जाता है। युधिष्ठिर! जो सदा भरण पोषण करने के योग्‍य पिता-माता आदि कुटुम्‍बीजनों, सेवकों तथा अतिथियों के भोजन कर लेने पर ही खाता है, वह केवल अमृत भोजन करता है; ऐसा समझो। जो अतिथियों को अन्‍न दिये बिना स्‍वयं भी नहीं खाता, वह अतिथि प्रिय है तथा जो देवताओं को अन्‍न दिये बिना भोजन नहीं करता, वह देवभक्‍त है। जो द्विज भृत्‍यों और अतिथियों के भोजन न करने पर स्‍वयं भी कभी अन्‍न ग्रहण नहीं करता, वह भोजन न करने के उस पुण्‍य से स्‍वर्गलोक पर विजय पा लेता है। देवगण, पितृगण, माता-पिता तथा अतिथियों सहित भृत्‍यवर्ग से अवशिष्ट अन्‍न को ही जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (यज्ञशिष्ट अन्‍न का भोक्‍ता) कहते हैं। ऐसे पुरुषों को अक्षय लोक प्राप्‍त होते हैं। ब्रह्मा जी तथा अप्‍सराओं सहित समस्‍त देवता उनके घर पर आकर उनकी परिक्रमा किया करते हैं। जो देवताओं और पितरों के साथ (अर्थात उन्‍हें उनका भाग अर्पण करके) भोजन करते हैं, वे इस लोक में पुत्र-पौत्रों के साथ रहकर आनन्‍द भोगते हैं और परलोक में भी उन्‍हें परम उत्‍तम गति प्राप्‍त होती हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में अमृत भोजन सम्‍बन्‍धी विषयक दो सौ इक्‍कीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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