प्रथम (1) अध्याय: महाप्रस्थानिक पर्व
महाभारत: महाप्रस्थानिक पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली ) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये। जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! इस प्रकार वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों में मूसल युद्ध होने का समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम पधारने के पश्चात पांडवों ने क्या किया? वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! कुरुराज युधिष्ठिर ने जब इस प्रकार वृष्णिवंशियों के महान संहार का समाचार सुना, तब महाप्रस्थान का निश्चय करके अर्जुन से कहा- "महामते! काल ही सम्पूर्ण भूतों को पका रहा है, विनाश की ओर ले जा रहा है। अब मैं काल के बन्धन को स्वीकार करता हूँ। तुम भी इसकी ओर दृष्टिपात करो।" भाई के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार अर्जुन ने "काल तो काल ही है, इसे टाला नहीं जा सकता" ऐसा कहकर अपने बुद्धिमान बड़े भाई के कथन का अनुमोदन किया। अर्जुन का विचार जानकर भीमसेन और नकुल-सहदेव ने भी उनकी कही हुई बात का अनुमोदन किया। तत्पश्चात धर्म की इच्छा से राज्य छोड़कर जाने वाले युधिष्ठिर ने वैश्यापुत्र युयुत्सु को बुलाकर उन्हीं को सम्पूर्ण राज्य की देख-भाल का भार सौंप दिया। फिर अपने राज्य पर राजा परीक्षित का अभिषेक करके पांडवों के बड़े भाई महाराजा युधिष्ठिर ने दु:ख से आर्त होकर सुभद्रा से कहा- "बेटी! यह तुम्हारे पुत्र का पुत्र परीक्षित कुरुदेश तथा कौरवों का राजा होगा और यादवों में जो लोग बच गये हैं, उनका राजा श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र को बनाया गया है। परीक्षित हस्तिनापुर में राज्य करेंगे और युदवंशी वज्र इन्द्रप्रस्थ में। तुम्हें राजा वज्र की भी रक्षा करनी चाहिये और अपने मन को कभी अधर्म की ओर नहीं जाने देना चाहिये।" ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भाइयों सहित आलस्य छोड़कर बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण, बूढ़े मामा वसुदेव तथा बलराम आदि के लिये जलाञ्जलि दी और उन सबके उद्देश्य से विधिपूर्वक श्राद्ध किया। प्रयत्नशील युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के उद्देश्य से द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, तपोधन मार्कण्डेय, भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि को सुस्वादु भोजन कराया। भगवान का नाम कीर्तन करके उन्होंने उत्तम ब्राह्मणों को नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र, ग्राम, घोड़े और रथ प्रदान किये। बहुत-से ब्राह्मणशिरोमणियों को लाखों कुमारी कन्याएँ दीं। तत्पश्चात गुरुवर कृपाचार्य की पूजा करके पुरवासियों सहित परीक्षित को शिष्यभाव से उनकी सेवा में सौंप दिया। इसके बाद समस्त प्रकृतियों (प्रजा-मन्त्री आदि) को बुलाकर राजर्षि युधिष्ठिर ने, वे जो कुछ करना चाहते थे, अपना वह सारा विचार उनसे कह सुनाया। उनकी वह बात सुनते ही नगर और जनपद के लोग मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे। उन्होंने उस प्रस्ताव का स्वागत नहीं किया। वे सब राजा से एक साथ बोले- "आपको ऐसा नहीं करना चाहिये (आप हमें छोड़कर कहीं न जायें)।" परंतु धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर काल के उलट-फेर के अनुसार जो धर्म या कर्तव्य प्राप्त था, उसे जानते थे; अत: उन्होंने प्रजा के कथनानुसार कार्य नहीं किया। उन धर्मात्मा नरेश ने नगर और जनपद के लोगों को समझा-बुझाकर उनकी अनुमति प्राप्त कर ली। फिर उन्होंने और उनके भाइयों ने सब कुछ त्यागकर महाप्रस्थान करने का निश्चय किया। इसके बाद कुरुकुलरत्न धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपने अंगों से आभूषण उतारकर वल्कल वस्त्र धारण कर लिया। नरेश्वर! फिर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा यशस्विनी द्रौपदी देवी- इन सब ने भी उसी प्रकार वल्कल धारण किये। भरतश्रेष्ठ! इसके बाद ब्राह्मणों से विधिपूर्वक उत्सर्गकालिक इष्टि करवाकर उन सभी नरश्रेष्ठ पांडवों ने अग्नियों का जल में विसर्जन कर दिया और स्वयं वे महायात्रा के लिये प्रस्थित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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