नारद | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- नारद (बहुविकल्पी) |
नारद
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अन्य नाम | देवर्षि नारद |
वंश-गोत्र | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक। |
धर्म-संप्रदाय | ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। |
रचनाएँ | 'नारद पांचरात्र', 'नारद भक्ति सूत्र', 'नारद पुराण', 'नारद स्मृति'। |
वाद्य | वीणा |
अन्य विवरण | नारद भगवान विष्णु के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। |
जयंती | ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की द्वितीया |
अन्य जानकारी | भक्ति तथा संकीर्तन के नारद आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। श्रीमुख से 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। |
नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर-अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।
विषय सूची
जन्म कथा
श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं।[1] देवर्षि नारद के जन्म के विषय में निम्न कथा प्रचलित है-
पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न होकर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गयी। अब नारद इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े।
एक दिन वह बालक एक पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देखकर आकाशवाणी हुई- "हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।" समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
देवर्षि
देवर्षि नारद वेद व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। 'श्रीमद्भागवत', जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित 'भक्तिसूत्र' बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- 'अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।'
नारद के ग्रंथ
- नारद पांचरात्र
- नारद के भक्तिसूत्र
- नारद महापुराण
- बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)
- नारद-परिव्राज कोपनिषद
- नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं।
विष्णु के अनन्य भक्त
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत 'भक्तिसूत्र' में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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