महाभारत विराट पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-10

षट्षष्टितम (66) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय तथा कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महात्मा अर्जुन ने जब इस प्रकार युद्ध के लिये ललकारा, तब धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन अंकुश की चोट खाये हुए मतवाले गजराज की भाँति उनके कटु वचन रूपी अंकुश से पीड़ित हो पुनः लौट पड़ा। अपमान को न सह सका, अतएव जैसे पैरों से कुचला हुआ सर्प बदला लेने के लिये लौट पड़ता है, उसी प्रकार दुर्योधन अपने रथ के साथ लौट आया। उसको लौटते देख कर्ण भी अपने घायल शरीर को किसी प्रकार संभालकर लौट पड़ा और दुर्योधन के उत्तर ( वाम ) भाग में रहकर युद्ध भूमि में पार्थ का सामना करने के लिये चला। नरवीर कर्ण सोने की माला से अलंकृत था। तदनन्तर सुनहरे रंग की चादर ओढ़े शान्तनु नन्दन भीष्म भी बड़े वेग से रथ घुमाकर वहाँ आ पहुँचे। वे शत्रु को पराजित करने में समर्थ थे। महाबाहु भीष्म धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाकर पश्चिम या पीछे की ओर से पार्थ के आक्रमण से दुर्योधन की रक्षा करने लगे। तत्पश्चात द्रोण, कृपाचार्य, विविंशति और दुःशासन भी शीघ्र ही घूमकर आ गये। वे सब अपने विशाल धनुष को ताने हुए पूर्व या सामने की ओर से दुर्योधन की रक्षा के लिये बड़ी उतावली के साथ आये थे।

जैसे सूर्य घिरती हुई मेघों की घटा को अपनी किरणों से तपाता है, उसी प्रकार वेगशाली कुंती पुत्र धनंजय ने भारी जल प्रवाह के समान लौटती हुई उन कौरव सेनाओं को देखकर उन्हें संताप देना आरम्भ किया। दिव्य अस्त्र धारण किये हुए उन योद्धाओं ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और जैसे बादल पहाड़ के ऊपर सब ओर से पानी बरसाते हैं? उसी प्रकार वे निकट आकर उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। तब शत्रुओं का वेग सहन करने वाले इन्द्र के पुत्र गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने अस्त्र से कौरव दल के उन श्रेष्ठ वीरों के अस्त्रों का निवारण करके सम्मोहन नामक दूसरा अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण करना किसी के लिये भी असम्भव था। फिर तो उन महाबली ले सुन्दर पंख और पैनी धार वाले बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं और दिक्कोणों को आच्छादित करके गाण्डीव धनुष की ( भयंकर ) टंकार से कौरव योद्धाओं के हृदय में बड़ी व्यथा उत्पन्न कर दी। तत्पश्चात शत्रुहन्ता कुन्ती कुमार ने भयंकर शब्द करने वाले अपने महाशंख को, जिसकी आवाज बहुत दूर तक सुनायी पड़ती थी, दोनों हाथें से थामकर बजाया। उसकी ध्वनि सम्पूर्ण दिशाओं-विदिशाओं, आकाश तथा पृथ्वी में सब ओर गूँज उठी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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