महाभारत विराट पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-13

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध तथा कौरव पक्ष के सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को हटा ले जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! कौरव सेनाओं को व्यूह रचना करके खड़ी हुई देखकर कुन्ती नन्दन अर्जुन ने विराटकुमार उत्तर को सम्बोधित करके कहा -। ‘उत्तर! जिसकी ध्वजा पर सोने की वेदी का चिह्न दिखायी देता है, उस रथ के दाहिने होकर चलो। उधर ही शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य हैं’।

वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन्! धनंजय की बात सुनकर विराट कुमार उत्तर ने तुरंत ही चाँदी के समान चमकीले उन श्वेत घाड़ों को; जो सोने के साज सामान से सुशोभित हो रहे थे, हाँका। घाड़ों को वेग पूर्वक भगाने के जितने उत्तम ढंग हैं, क्रमशः उन सबका सहारा लेकर उत्तर ने उन चन्द्रमा के समान श्वेत घोड़ों को इतनी तीव्र गति से आगे बढ़ाया, मानो वे कुपित होकर भाग रहे हों। अश्व विद्या में प्रवीण विराट पुत्र ने पहले कौरव सेना के समीप जाकर उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को पुनः लौटाया और दाँयी ओर से घुमाकर बाँयीं ओर बढ़ा दिया। अश्व संचालन का रहस्य जानने वाले मत्स्य देश के पुत्र ने रथ की चाल से कौरवों को मोह ( भ्रम ) में डाल दिया - वे यह न जान सके कि रथ किस महारथी के पास जाना चाहता है। विराट नन्दन महाबली उत्तर को किसी ओर से कोई भय नहीं था। उसने कृपाचार्य के रथ के समीप जा रथ द्वारा उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके सामने जा वह रथ रोककर खड़ा हो गया। तब अर्जुन ने अपना नाम सुनाकर और पूरा बल लगाकर भारी आवाज करने वाले अपने उत्तम शंख देवदत्त को बजाया।

युद्ध भूमि में वैसे महापराक्रमी विजयशील अर्जुन के द्वारा बजाये जाने पर उस शंख से इतने जोर की आवाज हुई, मानो कोई पर्वत फट गया हो। उस समय समसत कौरव अपने सैनिकों के साथ यह कह कर उस शंख की सराहना करने लगे कि अहो! यह अद्भुत शंख है। जो अर्जुन के इस प्रकार बजाने पर भी उसके सैंकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते। वह शंखनाद स्वर्गलोक से टकराकर जब पुनः लौटा, तब इस प्रकार सुनायी दिया, मानो इन्द्र का चलाया हुआ वज्र किसी पर्वत पर गिरा हो। वीरवर कृपाचार्य बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। उन्हें जीतना अत्यन्त कठिन था। वे अर्जुन के शंख बजाने के अनन्तर उनके प्रति कुपित हो उठे। शरद्वान् के पुत्र महारथी कृपाचार्य उस समय अर्जुन के शंखनाद को नहीं सह सके उनके मन में अर्जुन पर कुछ रोष हो आया; इसलिये युद्ध के (उनके साथ ) अभिलाषी होकर उन महापराक्रमी महारथी ने अपना शंख लेकर उसे बड़े जोर से फूँका।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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