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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिये समझाना, दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पाण्डवों से युद्ध करने का ही निश्चय तथा धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना
- धृतराष्ट्र बोले- संजय! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर क्षात्र तेज से सम्पन्न हैं। उन्होंने कुमारावस्था से ही विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन किया है, परंतु मेरे ये मूर्ख पुत्र मेरे विलाप की ओर ध्यान न देकर उन्हीं युधिष्ठिर के साथ युद्ध छेड़ने वाले हैं। (1)
- भरतकुलभूषण शत्रुदमन दुर्योधन! तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। श्रेष्ठ पुरुष किसी भी दशा में युद्ध की प्रशंसा नहीं करते हैं। (2)
- शत्रुओं का दमन करने वाले वीर! तुम पाण्डवों को उनका यथोचित राज्यभाग दे दो। बेटा! मन्त्रियों सहित तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिये तो आधा राज्य ही पर्याप्त है। (3)
- समस्त कौरव यही धर्मानुकूल समझते हैं कि तुम महात्मा पाण्डवों के साथ [1] शांति बनाये रखने की बात स्वीकार कर लो। (4)
- वत्स! तुम इस अपनी ही सेना की ओर दृष्टिपात करो। यह तुम्हारा विनाशकाल ही उपस्थित हुआ है, परंतु तुम मोहवश इस बात को समझ नहीं रहे हो। (5)
- देखो, न तो मैं युद्ध करना चाहता हूँ, न बाह्लीक इसकी इच्छा रखते है और न भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, संजय, सोमदत्त, शल्य तथा कृपाचार्य ही युद्ध करना चाहते हैं। सत्यव्रत, पुरूमित, जय और भूरिश्रवा भी युद्ध के पक्ष में नहीं है। (6-7)
- शत्रुओं से पीड़ित होने पर कौरव सैनिक जिनके आश्रय में खड़े हो सकते हैं, वे ही लोग युद्ध का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं। तात! उनके इस विचार को तुम्हें भी पसंद करना चाहिये। (8)
- मैं जानता हूँ तुम अपनी इच्छा से युद्ध नहीं कर रहे हो, अपितु पापात्मा दु:शासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि ही तुमसे यह कार्य करा रहे हैं। (9)
- दुर्योधन बोला- पिताजी! मैंने आप, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, संजय, भीष्म, काम्बोजनरेश, कृपाचार्य, बाह्लीक, सत्यव्रत, पुरूमित्र, भूरिश्रवा अथवा आपके अन्याय योद्धाओं पर सारा बोझ रखकर पाण्डवों को युद्ध के लिये आमन्त्रित नहीं किया है। (10-11)
- तात! भरतश्रेष्ठ! मैंने तथा कर्ण ने रणयज्ञ का विस्तार करके युधिष्ठिर को बलिपशु बनाकर उस यज्ञ की दीक्षा ले ली हैं। (12)
- इसमें रथ ही वेदी है, खड्ग स्त्रुवा है, गदा स्त्रुक है, कवच मृगमर्च है, रथ का भार वहन करने वाले मेरे चारों घोडे़ ही चार होता है, बाण कुश हैं और यश ही हविष्य है। (13)
- नरेश्वर! हम दोनों समरांगण में अपने इस यज्ञ के द्वारा यमराज का यजन करके शत्रुओं को मारकर विजयी हो विजय-लक्ष्मी से शोभा पाते हुए पुन: राजधानी में लौटेंगे। (14)
- तात! मैं, कर्ण तथा भाई दु:शासन- हम तीन ही समरभुमि में पाण्डवों का संहार कर डालेंगे। (15)
- या तो मैं ही पाण्डवों को मारकर इस पृथ्वी का शासन करूंगा या पाण्डव ही मुझे मारकर भूमण्डल का राज्य भोगेंगे। (16)
- राज्यच्युत न होने वाले महाराज! मैं जीवन, राज्य, धन- सब कुछ छोड़ सकता हूँ, परंतु पाण्डवों के साथ मिलकर कदापि नहीं रह सकता। (17)
- पूज्य पिताजी! तीखी सूई के अग्रभाग से जितनी भूमि बिध सकती है, उतनी भी मैं पाण्डवों को नहीं दे सकता। (18)
- धृतराष्ट्र बोले- तात कौरवगण! दुर्योधन को तो मैंने त्याग दिया। यमलोक को जाते हुए उस मूर्ख का तुम लोगों में से जो अनुसरण करेंगे मैं उन सभी लोगों के लिये शोक में पड़ा हूँ। (19)
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