अष्टम (8) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व:अष्टमोऽध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- "भरतनन्दन! इस जगत में कौन-कौन पुरुष पूजन और नमस्कार के योग्य हैं? आप किनको प्रणाम करते हैं? तथा नरेश्वर! आप किनको चाहते हैं? यह सब मुझे बताइये। बड़ी-से बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी आपका मन किनका स्मरण किये बिना नहीं रहता? तथा इस समस्त मानव लोक ओर परलोक में हितकारी क्या है? ये सब बातें बताने की कृपा करें।" भीष्म जी ने कहा- "युधिष्ठिर! जिनका ब्रह्म (वेद) ही परम धन है, आत्मज्ञान ही स्वर्ग है तथा वेदों का स्वाध्याय करना ही श्रेष्ठ तप है, उन ब्राह्मणों को मैं चाहता हूँ। जिनके कुल में बच्चे से लेकर बूढ़े तक बाप-दादों की परम्परा से चले आने वाले धार्मिक कार्य का भार संभालते हैं, परंतु उसके लिये मन में कभी खेद का अनुभव नहीं करते हैं, ऐसे ही लोगों को मैं चाहता हूँ। जो विनीत भाव से विद्या अध्ययन करते हैं, इन्द्रियों को संयम में रखते हैं और मीठे वचन बोलते हैं, जो शास्त्र ज्ञान और सदाचार दोनों से सम्पन्न हैं, अविनाशी परमात्मा को जानने वाले सत्पुरुष हैं, तात युधिष्ठिर! सभाओं में बोलते समय हंस समूहों की भाँति जिनके मुख से मेघ के समान गंभीर स्वर से मनोहर मंगलमयी एवं अच्छे ढंग से कही गयी बातें सुनायी देती हैं, उन ब्राह्मणों को ही मैं चाहता हूँ। यदि राजा उन महात्माओं की बातें सुनने की इच्छा रखे तो वे उसे इहलोक और परलोक में भी सुख पहुँचाने वाली होती हैं। जो प्रतिदिन उन महात्माओं की बातें सुनते हैं, वे श्रोता विज्ञानगुण से सम्पन्न हो सभाओं में सम्मानित होते हैं। मैं ऐसे श्रोताओं की भी चाह रखता हूँ। राजा युधिष्ठिर! जो पवित्र होकर ब्रह्माणों को उनकी तृप्ति के लिये शुद्ध और अच्छे ढंग से तैयार किये हुए पवित्र तथा गुणकार अन्न परोसते हैं, उनको भी मैं सदा चाहता हूँ। युधिष्ठिर! संग्राम में युद्ध करना सहज है। परंतु दोषदृष्टि से रहित होकर दान देना सहज नहीं है। संसार में सैकड़ों शूरवीर हैं, परंतु उनकी गणना करते समय जो उनमें दानशूर हो, वही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। सौम्य! यदि मैं कुलीन, धर्मात्मा, तपस्वी और विद्वान अथवा कैसा भी ब्राह्मण होता तो अपने को धन्य समझता। पांडुनन्दन! इस संसार में मुझे तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है, पंरतु भरतश्रेष्ठ! ब्राह्मणों को मैं तुम से भी अधिक प्रिय मानता हूँ। कुरुश्रेष्ठ! ब्राह्मण मुझे तुम्हारी अपेक्षा भी बहुत अधिक प्रिय हैं- इस सत्य के प्रभाव से मैं उन्हीं पुण्यलोकों में जाऊँगा, जहाँ मेरे पिता महाराज शान्तनु गये हैं। मेरे पिता भी मुझे ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं रहे हैं। पितामह और अन्य सुहृदों को भी मैनें कभी ब्राह्मणों से अधिक प्रिय नहीं समझा है। मेरे द्वारा ब्राह्मणों के प्रति किन्हीं श्रेष्ठ कर्मों में कभी छोटा-मोटा किंचिन्मात्र भी अपराध नहीं हुआ है। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! मैंने मन, वाणी और कर्म से ब्राह्मणों का जो थोड़ा-बहुत उपकार किया है, उसी के प्रभाव से आज इस अवस्था में पड़ जाने पर भी मुझे पीड़ा नहीं होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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