महाभारत वन पर्व अध्याय 194 श्लोक 1-8

चतुर्नवत्‍यधिकशततम (194) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्नवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


क्षत्रिय राजाओं का महत्त्व-सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर पाण्‍डवों ने पुन: मार्कण्‍डेय जी से प्रश्न किया- ‘मुनिवर! आपने ब्रह्मणों के माहात्‍म्‍य का तो वर्णन किया, अब हम क्षत्रियों की महत्ता के विषय में इस समय कुछ सुनना चाहते हैं।' यह बात सुनकर महर्षि मार्कण्‍डेय ने कहा- 'अच्‍छा सुनो। अब मैं क्षत्रियों के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ। कुरुवंशी क्षत्रियों में सुहोत्र नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। एक दिन वे महर्षियों का सत्‍संग करके जब वहाँ से लौट रहे थे, उस समय उन्‍होंने अपने सामने ही रथ पर बैठे हुए उशीनर पुत्र राजा शिबि को देखा। निकट आने पर उन दोनों ने अवस्‍था के अनुसार एक-दूसरे का सम्‍मान किया। पंरतु गुण में अपने बराबर समझकर एक ने दूसरे के लिये राह नहीं दी। इतने में वहाँ देवर्षि नारद जी प्रकट हो गये और पूछ बैठे- ‘यह क्‍या बात है, जो कि तुम दोनों इस तरह एक-दूसरे का मार्ग रोककर खड़े हो।'

तब उन दोनों ने नारद जी से कहा- ‘भगवन्! ऐसी बात नहीं है। पहले के कर्म-कर्ताओं (धर्म-व्‍यवस्‍थापकों) ने यह उपदेश दिया है कि जो अपने से सभी बातों में बढ़ा-चढ़ा हो या अधिक शक्तिशाली हो, उसी को मार्ग देना चाहिये। हम दोनों एक-दूसरे से मित्रभाव रखकर मिले हैं। विचार करने पर हम यह निर्णय नहीं कर पाते कि हम दोनों में से कौन अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ है और कौन उसकी उपेक्षा अधिक छोटा है।' उनके ऐसा कहने पर नारद जी ने तीन श्लोक पढ़े। उनका सारांश इस प्रकार है- कौरव! अपने साथ कोमलता का बर्ताव करने वाले के लिये क्रूर मनुष्‍य भी कोमल बन जाता है। क्रूरतापूर्ण बर्ताव तो वह क्रूर मनुष्‍यों के प्रति ही करता है। पंरतु साधु पुरुष दुष्‍टों के प्रति भी साधुता का ही बर्ताव करता है। फिर वह साधु पुरुषों के साथ साधुता का बर्ताव कैसे नहीं अपनायेगा। मनुष्‍य भी चाहे तो वह अपने ऊपर किये हुए उपकार का बदला सौ गुना करके चुका सकता है।

देवताओं में ही यह प्रत्‍युपकार का भाव होता है, ऐसा नियम नहीं है। सुहोत्र! उशीनरपुत्र राजा शिबि का शील-स्‍वभाव तुम से कहीं अच्‍छा है। नीच प्रकृति वाले मनुष्‍यों को दान देकर वश में करे। असत्‍यवादी को सत्‍य भाषण से जीते। क्रूर को क्षमा से और दुष्‍ट को उत्तम व्‍यवहार से अपने वश में करे। अत: तुम दोनों ही उदार हो; इस समय तुम दोनों में से एक, जो अधिक उदार हो, वह मार्ग छोड़कर हट जाये; यही उदारता का आदर्श है।’ ऐसा कहकर नारद जी चुप हो गये।

यह सुनकर कुरुवंशी राजा सुहोत्र ने शिबि को अपनी दायीं ओर करके मार्ग दे दिया और उनके अनेक सत्‍कर्मों का उल्‍लेख करके उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वे अपनी राजधानी को चले गये। इस प्रकार साक्षात् नारद जी ने राजा शिबि की महत्ता का अपने मुख से वर्णन किया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तगर्त मार्कण्‍डेयसमास्‍यापर्व में शिबिचरित विषयक एक सौ चौरानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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