महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-17

द्वाविंशत्यधिकशततम (122) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


व्यास-मैत्रेय-संवाद - तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! मैत्रेय के इस प्रकार कहने पर भगवान वेदव्यास उनसे इस प्रकार बोले- 'ब्रह्मन! तुम बड़े सौभाग्यशाली हो, जो ऐसी बातों का ज्ञान रखते हो। भाग्य से तुमको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है। संसार के लोग उत्तम गुण वाले पुरुष की ही अधिक प्रशंसा करते हैं। सौभाग्य की बात है कि रूप, अवस्था और सम्पत्ति के अभिमान तुम्हारे ऊपर प्रभाव नहीं डालते हैं। यह तुम पर देवताओं का महान अनुग्रह है। इसमें संशय नहीं है। अस्तु, अब मैं दान से भी उत्तम धर्म का तुम से वर्णन करता हूँ, सुनो।

इस जगत में जितने शास्त्र और जो कोई भी प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब वेद को ही सामने रखकर क्रमशः प्रचलित हुए हैं। मैं दान की प्रशंसा करता हूँ, तुम भी तपस्या और शास्त्र ज्ञान की प्रशंसा करते हो, वास्तव में तपस्या पवित्र और वेदाध्ययन एवं स्वर्ग का उत्तम साधन है। मैंने सुना है कि तपस्या और विद्या दोनों से ही मनुष्य महान पद को प्राप्त करता है। अन्यान्य जो पाप हैं, उन्हें भी तपस्या से ही दूर कर सकता है। जो कोई भी उद्देश्य लेकर पुरुष तपस्या में प्रवृत्त होता है, वह सब उसे तप और विद्या से प्राप्त हो जाता है; यह हमारे सुनने में आया है। जिससे सम्बन्ध स्थापित करना अत्यन्त कठिन है, जो दुर्धर्ष, दुर्लभ और दुर्लंघ्य है, वह सब तपस्या से सुलभ हो जाता है; क्योंकि तपस्या का बल सबसे बड़ा है।

शराबी, चोर, गर्भहत्यारा, गुरु की शय्या पर शयन करने वाला पापी भी तपस्या द्वारा सम्पूर्ण संसार से पार हो जाता है और अपने पापों से छुटकारा पा जाता है। जो सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण है, वही नेत्रवान है और तपस्वी, चाहे जैसा हो, उसे भी नेत्रवान ही कहा जाता है। इन दोनों को सदा नमस्कार करना चाहिये। जो विद्या के धनी और तपस्वी हैं, वे सब पूजनीय हैं तथा दान देने वाले भी इस लोक में धन-सम्पत्ति और परलोक में सुख पाते हैं। संसार के पुण्यात्मा पुरुष अन्नदान देकर इस लोक में भी सुखी होते हैं और मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक तथा दूसरे शक्तिशाली लोक को प्राप्त कर लेते हैं। दानी स्वयं पूजित और सम्मानित होकर दूसरों का पूजन और सम्मान करते हैं। दाता जहाँ-जहाँ जाते हैं, सब ओर उनकी स्तुति की जाती है। मनुष्य दान करता हो या न करता हो, वह ऊपर के लोक में रहता हो या नीचे के लोक में, जिसे कर्मानुसार जैसा लोक प्राप्त होगा, वह अपने उसी लोक में जायगा।

मैत्रेय जी! तुम जो कुछ चाहोगे, उसके अनुसार तुम को अन्न-पान की सामग्री प्राप्त होगी। तुम बुद्धिमान, कुलीन, शास्त्रज्ञ और दयालु हो। तुम्हारी तरुण अवस्था है और तुम व्रतधारी हो। अतः सदा धर्म-पालन में लगे रहो और गृहस्थों के लिये जो सबसे उत्तम एवं मुख्य कर्तव्य है, उसे ग्रहण करो, ध्यान देकर सुनो। जिस कुल में पति अपनी पत्नी से और पत्नी अपने पति से संतुष्ट रहती हो, वहाँ सदा कल्याण होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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